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________________ पउवो भवोj २६७ गमणं । तओ असुद्धयाए आसयस्स विचित्तचरिययाए सत्ताणं समुप्पन्ना ते चिता । नणं सा जोयप्पणा सह पवसिया भविस्सइ। अन्नया पवत्ता राधकुले कहा, जहा विणीयसे ट्ठिस्स धूया न याणिज्जइ कहिं पवसिय त्ति ? तओ तए उज्झिऊण सस्थायारं अवलंबिऊण इयरपुरिसमग्गं अणवेक्खिऊण अत्तणो लहुययं' अयाणिंऊण सेट्ठिउम्माहयं एवं जंपियं ति। किमेत्थ जाणि पव्वं, अहं जाणामि । राइणा भणियं-- 'कह ति ? तर भणियं-जोयप्पणा सद्धि पवसिय ति। राइणा भणियं-परिचत्तनियकलत्तारंभो खु सो भगवं । तए भणियं --अओ चेव परकलत्ताइं पत्थेइ। महाराय, एवंविहा चेव एए पासंडिणो। न एत्थ परमत्थबुद्धी कायव्य ति। एयं च सोऊण विपरिणया धम्मम्मि केइ पाणिणो । सवणपरंपराए य आयण्णियमिणं सेसपरि व्वायरहिं; वज्झो कओ जोयप्पा, जाया य से सपक्खपरपक्षेहि पायं विडंबणा। एवंविहमिच्छापरिणामवत्तिणा बद्धं तए तिव्वं कम्मं । अदक्कतो कोइ कालो। परिक्खीणमहाउयं । तओ अपरिचत्तयाए आरभस्स मायाबहुलयाए सेसकालं अणा सेवणाए धम्मस्स विचित्तयाए कम्मपरिणईणं मओ समाणो कोल्लागसन्निवेसे समुप्पन्नो एलगत्ताए गमनम् । ततोऽशुद्धतयायस्य विचित्रचरितया सत्त्वानां समुत्पन्ना ते चिन्ता-'ननं सा योगात्मना सह प्रोषिता भविष्यति । अन्यदा प्रवत्ता राजकुले कथा, चथा विनीतश्रेष्ठिनो दुहिता न ज्ञायते कुत्र प्रोषितेति? ततस्त्वया उज्झित्वा शास्त्राचारम्, अवलम्ब्य इतरपुरुषमार्गम्, अनवेक्ष्यात्मनो लघकताम, अज्ञात्वा श्रेष्ठ उन्मार्थ (विनाशं) एवं जल्पितमिति । किमत्र ज्ञातव्यम् ? अहं जानामि । राज्ञा भणितम्-'कथम्- इति । त्वया भणितम्--योगात्मना सार्धं प्रोषितेति । राज्ञा भणितमपरित्यक्तनिजकलत्रारम्भः खलु स भगवान् । त्वया भणितम्-अत एव परकलत्राणि प्रार्थयते। महाराज! एवंविधा एवैते पाखण्डिनः। नात्र परमार्थबुद्धिः कर्तव्येति । एतच्च श्रत्वा विपरिणता धर्मे केचित् प्राणिनः । श्रवणपरम्परया चाकणितमिदं शेषपरिव्राजकैः, बाह्यः कृतो योगात्मा, जाता च तस्य स्वपक्षपरपक्षैः प्रायो विडम्बना । एवंविधमिथ्यापरिणामवर्तिना बद्धं त्वया तो कर्म । अतिक्रान्तः कोऽपि कालः। परिक्षीणमथायुष्कम् । ततोऽपरित्यक्ततयाऽऽरम्भस्य मायाबहुलतया शेषकालमनासेवनया धर्मस्य विचित्रतया कर्मपरिणतीनां मृतः सन् कोल्लाकसन्निवेश समुत्पन्न एडकतचरित विचित्र होने के कारण तुम्हें चिन्ता हुई 'निश्चित रूप से वह योगात्मा के साथ भाग गयी होगी।' एक बार राजपरिवार में चर्चा हुई कि विनीत सेठ की पुत्री न मालूम कहाँ भाग गयी? तब तुमने शास्त्र के आचार को छोड़कर, दूसरे पुरुषों के मार्ग का सहारा लेकर अपनी लघुता की परवाह न कर, सेठ के विनाश को न जानकर ऐसा कहा-'इसमें क्या जानना, मैं जानता हूँ।' राजा ने कहा-'कैसे ?' तुमने कहा-'योगात्मा के साथ भाग गयी।' राजा ने कहा-'उन भगवान् ने अपनी स्त्री आदि परिग्रह का त्याग कर दिया है।' तम कहा-'इसीलिए दूसरे की स्त्रियों की इच्छा करता है। महराज ! ये पाखण्डी ऐसे ही होते हैं। इन्हें सही नहीं मानना चाहिए।' यह सुनकर कुछ प्राणी धर्म से विपरीत हो गये। शेष परिव्राजकों के कानों में यह बात पहुंची, उन्होंने योगात्मा को बाहर निकाल दिया। स्वपक्ष और परपक्ष के लोगों ने उसकी हंसी की। इस प्रकार के झूठे परिणामों के कारण तुमने तीव्र कर्म का बन्ध किया । कुछ समय बीत गया। आयु क्षीण हुई । तब आरम्भ का त्याग किये बिना, माया की प्रचुरता के कारण शेष समय में धर्म का सेवन कर कर्मों की विचित्र परिणति होने से मरकर कोल्लाक सन्निवेश में भेड़ के रूप में उत्पन्न हुए। कुछ समय बीत गया। उस कर्म के दोष से १. हलुययं-क। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001881
Book TitleSamraicch Kaha Part 1
Original Sutra AuthorHaribhadrasuri
AuthorRameshchandra Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1993
Total Pages516
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Story, & literature
File Size13 MB
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