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________________ २६८ [समराइच्च कहा ति । अइक्कतो को कालो । तक्कम्मदोसेण य सडिया ते जीहा । गहिओ महावेयणाए । थेवकालेणं चेव झीणं च ते आउयं । तओ मरिऊण तक्कस्मसेसयाए कोल्लागसन्निवेसाडवीए चेव समुप्पन्नो गोमा गत्ताए ति । तत्थ वि य तक्कम्मपेरियतहा विहफलभक्खणेण सडिया ते जीहा । अइक्कंतो कोइ कालो । तओ मरिऊण तक्कम्मसेसयाए चैव समुप्पन्नो साएयनरवइविलासिणीए मयणलेहाभिहाणा' सुयत्ताए ति । पत्तो जोव्वणं, वल्लहो नरवइस्स । अन्नया तक्कम्म दोसओ चेव सुरापाणमत्तेणं विणावि कज्जेणं दढमक्कोसिया रायजणगी । सुओ रायउत्तेण, वाराविओ तेणं । तओ तं पि अक्कोसिउं पत्तो । कुविएण छिंदाविया ते जोहा । ववगओ मओ । लज्जिओ खु अत्तणो वृत्तंतेणं । पडिवन्नो य अणसणं । मासमेत्तेण कालेण विमुक्को पाहि । समुप्पन्नो य एत्थ पुंडवद्धणम्मि' माहणसुयत्ताए ति । एयमणुहूयं तए । ओममेयं सोऊण समुप्पन्नो संवेगो, जाओ भवविराओ । चिनियं मए । अहो दुक्खउत्तणं पमायचरियस्स । पुच्छिओ साहू । भयवं, केरिसं फलसेसं ति ? तओ तेण अइसयनाणिणा विसेसेणं इमं अवलोइऊण भणियं सकरुणं । वच्छ, अविवेगिजणाणुरूवा सयललोए विडंबणा सेसं ति । येति । अतिक्रान्तः कोऽपि कालः । तत्कर्मदोषेन च शटिता ते जिल्ह्वा । गृहोतो महावेदनया । स्तोककालेनैव क्षोणं च तवायुः । ततो मृत्वा तत्कर्मशेषतया कोल्लाकसन्निवेशाटव्यामेव समुत्पन्नो गोमायुकतयेति । तत्रापि च तत्कर्मप्रेरिततथाविधफल भक्षणेन शटिता ते जिह्वा । अतिक्रान्तः कोऽपि कालः । ततो मृत्वा तत्कर्मशेषतयैव समुत्पन्नो साकेतनरपतिविलासिन्यां मदनलेखाभिधानायां सुतयेति । प्राप्तो यौवनम्, वल्लभो नरपतेः । अन्यदा तत्कर्मदोषत एव सुरापानमत्तेन विनाऽपि कार्येण दृढमाकुष्टा राजजननी । श्रुतो राजपुत्रेण, वारितस्तेन ततस्तमपि आक्रोष्टं प्रवृत्तः । कुपितेन छेदिता तै जिह्वा । व्यपगतो मदः । लज्जितः खल्वात्मनो वृत्तान्तेन । प्रतिपन्नश्चानशनम् । मासमात्रेण कालेन विमुक्तो प्राणेभ्यः । समुत्पन्नश्चात्र पुण्ड्रवर्धने ब्राह्मणसुततयेति । एतदनुभूतं त्वया । ततो ममैतत् श्रुत्वा समुत्पन्नः संवेगः, जातो भवविरागः, चिन्तितं मया - अहो ! दुःखहेतुत्वं प्रमादचरितस्य । पृष्टों साधुः कीदृशं फलशेषमिति । ततस्तेनातिशयज्ञानिना विशेषेणेममवलोक्य भणितं सकरुणेन । वत्स ! अविवेकिजनानुरूपा सकललोके विडम्बना शेषमिति । ततो मया तुम्हारी जीभ सड़ गयी । महावेदना ने तुम्हें जकड़ लिया। थोड़े ही समय में तुम्हारी आयु क्षीण हो गयी । तब मरकर उस कर्म के शेष रह जाने के कारण कोल्लाक सन्निवेश के जंगल में ही सियार हुए। उस जन्म में भी उस कर्म के कारण उस प्रकार के फल को खा लेने के कारण तुम्हारी जीभ सड़ गयी । कुछ समय बीत गया । तब मरकर उसी कर्म के शेष रह जाने के कारण अयोध्या के राजा की मदनलेखा नामक वेश्या के घर पुत्री हुए । यौवनावस्था को प्राप्त वह राजा की प्रिय हुई । एक बार उसी कर्म के दोष से मदिरापान में मतवाली होकर कार्य के बिना भी राजमाता को खूब डाँटा । राजपुत्र से सुनने, मना करने पर उसे भी डाँटने लगी । कुपित होकर ( उसने) तेरी जीभ छेद दी । मद दूर हुआ । अपने वृत्तान्त पर लज्जित हुई और अनशन धारण कर लिया। एक मास बाद प्राण छूटे और इस पुण्ड्रवर्धन में ब्राह्मणपुत्र के रूप में उत्पन्न हुए। तुमने इस प्रकार अनुभव किया । तब यह सुनकर मैं उद्विग्न हो गया । संसार के प्रति विरक्ति हो गयी। मैंने सोचा - ओह ! प्रमादपूर्वक किया हुआ आचरण दुःख का कारण है । साधु से पूछा - इसका फल क्या होगा ? तब उन अतिशय ज्ञानी ने इसे विशेष देखकर ( जानकर ) करणापूर्वक कहा - " वत्स ! अविवेकी मनुष्यों के अनुरूप तथा समस्त लोगों की हँसी १. मयणलयाक ९. पोण्डबद्ध गम्मिक | Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001881
Book TitleSamraicch Kaha Part 1
Original Sutra AuthorHaribhadrasuri
AuthorRameshchandra Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1993
Total Pages516
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Story, & literature
File Size13 MB
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