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________________ भवो ] २६६ तओ मए समुप्पन्नवेरग्गेण मुणिवयणभोएण सुगहियनामगुरुसमी वे पवन्ना पव्वज्जा । अइक्कतो कोइ कालो । लद्वाओ य गुरुसुरलोयगमणकाले मए गुरुसुस्सूसापरेण गुरुसयासाओ तालग्घाडणिगयणगामिणीओ दुवे महाविज्जाओ । भणिओ म्हि गुरुणा-वच्छ ! एवाओ धम्मकायपरिवालणत्थं कपि महावसणकालम्मि चेव तए पउज्जियन्त्राओ, न उण सया असारविसयसुहसाहणत्थं ति । अन्नं च, एयाओ धारयंतेणं परिहासेणावि अलियं न जंपियव्वं; पमायओ जंपिए समाणे तक्खणं चैव नाहिप्पमाण विमलजलगएणं उद्धबाहुणा अणिमिसलोयणेणं एयासि चेव अट्टसहस्सेणं जावो दायत्वो ति । ओम पावमोहिमणेणं साहुसिटुनियइवसवत्तिणा अविज्जाणुरायनडिएणं गुरुवयणपडिकूलं इहपरलोग मग्गविरुद्धं सव्वमियमणुचिट्ठियं । जंपियं च मए कल्लं असंपत्ताए भयवईए संभाए आवसहासन्नारामबउलतलगएणं पमायओ तरुण रामायणपुच्छिएण अपरिहाससीलेण वि परिहासेणं उभयलोयविरुद्धं अलियवयणं ति । मंतिणा भणियं 'कि जंपियं' ति ? परिव्वायएण भणियंपुच्छिओ म्हि कल्लं तक्खणकयजलावगाहणाहि आवसहदेवयादंसणत्थमागयाहिं महुरपरिक्खलंत समुत्पन्नवैराग्येन मुनिवचनभीतेन सुगृहीतनामगुरुसमीपे प्रपन्ना प्रव्रज्या । अतिक्रान्तः कोऽपि कालः । लब्धे च गुरुसुरलोकगमनकाले मया गुरुशुश्रूषापरेण गुरुसकाशात् तालोद्घाटिनी-गगनगाम महाविद्य । भणितोऽस्मि गुरुणा - वत्स ! एते धर्मकायपरिपालनार्थे कुत्रापि महाव्यसनकाले एव त्वया प्रयोक्तव्ये, न पुनः सदाऽसारविषयसुखसाधनार्थमिति । अन्यच्च - एते धारयता परिहासेनापि अलोकं न जल्पितव्यम्, प्रमादतो जल्पिते सति तत्क्षणमेव नाभिप्रमाणविमलजलगतेन ऊर्ध्वबाहुनाऽनिमिषलोचनेन एतयोरेवाष्टसहस्रेण जापो दातव्य इति । ततो मया पापमोहितमनसा साधुशिष्ट नियतिवशवर्तिनाऽविद्यानुरागनटितेन ( व्याकुलितेन ) गुरुवचनप्रतिकूल मिहपरलोकमार्ग विरुद्धं सर्वभिदमनुष्ठितम् । जल्पितं च मया कल्येऽसन्प्राप्तायां भगवत्यां सन्ध्यायामावसथासन्नारामत्रकुलतलगतेन प्रमादतस्तरुणरामाजनपृष्टेनापरिहासशीलेनापि परिहासेनोभयलोक - विरुद्धमलीकवचनमिति । मन्त्रिणा भणितम् - किं जल्पितमिति ? परिव्राजकेन भणितम् - पृष्टोऽस्मि कल्ये तत्क्षणकृतजलावगाहनाभिरावसथदेवतादर्शनार्थमागताभिर्मधुरपरिस्खलद्वचनाभिः सवि मात्र जिसमें शेष है, इस प्रकार का फल प्राप्त होगा । तब मैंने विरक्त होकर मुनि के वचन से भयभीत हो 'सुगृहीत' नाम वाले गुरु के पास दीक्षा ले ली। कुछ समय बीता । गुरु के स्वर्ग-गमन के समय मैंने गुरु की सेवा के कारण उनसे ताली बजाने से प्रकट होने वाली और आकाशगामिनी ये दो महाविद्याएँ ले लीं। गुरु ने कहा था - 'वत्स ! इन दोनों विद्याओं का प्रयोग धर्मकाय ( धार्मिक शरीर) की रक्षा के लिए बहुत बड़ी आपत्ति के समय करना, सदा साररहित विषय सुखों के साधन के लिए इनका प्रयोग न करना । दूसरी बात यह है-' इनको धारण करते हुए हँसी में भी झूठ मत बोलना, प्रमाद से झूठ बोलने पर उस समय नाभि प्रमाण स्वच्छ जल में भुजाएँ ऊपर कर अपलक दृष्टि कर इनका आठ हजार जाप करना ।' तब मैंने पाप से मोहित मन वाला होकर, के द्वारा बतायी हुई नियति के वश में होकर, अविद्या के अनुराग से व्याकुल होकर, गुरु के वचनों से प्रतिकूल तथा इसलोक और परलोक के मार्ग से विरुद्ध यह सब किया और कल्य भगवती सन्ध्या को न कर कुटी के समीपवर्ती उद्यान के बकुलवृक्ष के नीचे जाकर, प्रमाद से तरुण स्त्रियों के द्वारा हँसी में पूछे जाने पर हँसी में ही मैंने इसलोक और परलोक दोनों का विरोधी असत्य वचन बोला। मन्त्री ने कहा - " क्या बोला ?" परिव्राजक ने कहा - " उसी समय जल में तैरती हुई कुटी के देवता के दर्शन के लिए आयी हुई, मधुर ओर स्खलित Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001881
Book TitleSamraicch Kaha Part 1
Original Sutra AuthorHaribhadrasuri
AuthorRameshchandra Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1993
Total Pages516
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Story, & literature
File Size13 MB
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