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________________ २७० वयणाहिं सविन्ममुभंतपेच्छिरोहिं तरुणरामाहिं । भयवं, कीस तुमं तरुणगो चेव जीवलोयसारभूयं जम्मंतरम्मि वि तवस्सिजणपणिज्ज हरिहरपियामहप्पमुहतियसवरसेवियं सयललोयसलाहणिज्जं विसयसोक्खं उज्झिऊण इमं ईइसं दुक्करं वयविसेसं पवन्नो ति? तओ मए तासि हिययगयं परिहासगभिणं भावं वियाणिऊण विमुक्कदोहनीसासं कालाणुरूवमलियं चेव जंपियं । जहा हिययाणकलपिययमाविरहसंतावपीडिएणं इमं ईइस दुक्करं क्यमन्भुवयं ति । जंपिऊण य इमं वयणं पमायओ चेव न कओ गुरुजणोवइट्ठो जावो। अकयजावो य वसणवसगो वि य जाए अट्टरत्तसमए अत्यमिए भवणपदोवे चंदे पसुत्ते नायरलोयनिवहे तिमिरदुस्संचरेसु रायमग्गेसु कहकहवि गंतूण पुवभंडियं पिव अकयपडिदुवारपिहाणं पविट्ठो सागरसेटिगेहं ति। तओ गहियसुवण्णरुप्पभंडो निग्गच्छंतो चेव सागरसेट्ठिगेहाओ आयण्णियपुरिसपयसंचारो विज्जाणुसरणदिन्नावहाणो खलियविज्जानहंगणगमणो सुमरिय' विज्जाविहंगदीणभावो विसमभयवसपलायमाणो कुंतकरवालवावडग्गभ्रमोदभ्रान्तप्रेक्षणाशीलाभिः तरुणरामाभिः । भगवन् ! किमर्थं त्वं तरुण एव जीवलोकसारभूतं जन्मान्तरेऽपि तपस्विजनप्रार्थनोयं हरिहरपितामहप्रमुखत्रिदशवरसेवितं सकललोकश्लाघनीयं विषयसौख्यमुज्झित्वेममीदृशं दुष्करं व्रत विशेष प्रपन्न इति ? ततो मया तासां हृदयगतं परिहासगभितं भावं विज्ञाय विमुक्तदीर्घनिःश्वासं कालानुरूपमलीकमेव जल्पितम् । यथा-हृदयानुकूलप्रियतमाविरहसन्तापपीडितेन इममीदृशं दुष्करं व्रतमभ्युपगतमिति । जल्पित्वा चेदं वचनं प्रमादत एव न कृतो गुरुजनोपदिष्टो जापः । अकृतजापश्च व्यसनवशगोऽपि च जातेर्धरात्रसमयेऽस्तमिते भवनप्रदीपे चन्द्रे प्रसुप्ते नागरलोकनिवहे तिमिरदुःसञ्चरेषु राजमार्गेषु कथं कथमपि गत्वा पूर्वभाण्डिकमिव (बान्धवमिव) अकृतप्रतिद्वारपिधानं प्रविष्टो सागरश्रेष्ठिगेहमिति। ततो गृहोतसुवर्ण रौप्यभाण्डो निर्गच्छन्नेव सागरवेष्ठिगेहादाणितपुरुषपदसञ्चारो विद्यानुस्मरणदत्तावधान: स्खलितविद्यानभोङ्गणगमनः स्मृतविद्याविभङ्गदीनभावो विषमभयवशपलायमानः कुन्तकरवाल वचनों वाली विलासपूर्वक धूमकर देखती हुई तरुण स्त्रियों ने मुझसे पूछा-'भगवान् ! तरुण होकर भी संसार की सारभूत दूसरे जन्म में भी तपस्वियों के द्वारा प्रार्थनीय, विष्णु, शिव, ब्रह्मा जिनमें प्रमुख है ऐसे श्रेष्ठ देवों द्वारा सेवित, समस्त जनों के द्वारा प्रशंसा योग्य विषय सुख को छोड़कर आप किसलिए इस प्रकार के दुष्कर व्रत विशेष को प्राप्त हुए हैं ?' तब मैंने उनके हृदय के हँसी-मजाक से भरे हुए भाव को जानकर दीर्घ निश्वास छोड़कर समय के अनुरूप झूठ ही बोला कि हृदय की अनुकूल प्रियतमा के विरह से उत्पन्न दुःख से पीड़ित होकर इस दुष्कर व्रत को स्वीकार कर लिया है। प्रमाद के कारण इस झूठ वचन को बोलकर, गुरुजनों द्वारा उपदिष्ट जाप को नहीं किया। जाप को किये बिना और व्यसन के वश में होकर आधी रात का समय होने पर जब कि संसार को प्रकाशित करने वाला चन्द्रमा अस्त हो गया था और नगर के निवासीगण सो गये थे तब अन्धकार के कारण कठिनाई से चलने योग्य सड़कों पर जिस किसी प्रकार जाकर, बन्धुजनों के समान प्रत्येक द्वार को बन्द किये बिना ही सागर सेठ के घर में घुस गया । तदनन्तर जब मैं सोने और चांदी का माल लेकर सागर सेठ के घर से निकल रहा था तभी, जिनके हस्तान में भाले और तलवारें थीं, जो गधे के समान कठोर शब्दों की ध्वनि से दिङ मण्डल को व्याप्त कर रहे थे, ऐसे जल्दी, यहाँ-वहां चलते हुए राजपुरुषों के द्वारा पकड़ लिया गया। उस समय पुरुषों के पैरों का संचार सुनाई पड़ रहा था, विद्या के बार-बार स्मरण में मेरा ध्यान लगा हुआ था। १. समरिय'"-क। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001881
Book TitleSamraicch Kaha Part 1
Original Sutra AuthorHaribhadrasuri
AuthorRameshchandra Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1993
Total Pages516
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Story, & literature
File Size13 MB
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