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________________ [ समराइच्चकहा जा उण कामोवायाणविसया, वित्तवपुव्वयकलादक्खिण्णपरिगया, अणुरायपुलइ' अपडिवत्ति जोअसारा', दूईवावार-रमियभावाणुवत्तणाइपयत्थसंगया सा कामकहत्ति भण्णइ। जा उण धम्मोवायाणगोयरा, खमा-मद्दवऽज्जवमुत्ति-तव-संजम-सच्च-सोयाऽऽकिंचन्न-बंभचेरपहाणा, अणुव्वय-दिसि-देसाऽणत्थदण्डविरई-सामाइय-पोसहोववासोवभोगपरिभोगा-ऽतिहि - सविभागकलिया, अणुकंपा-ऽकामनिज्जराइपयत्थसंपउत्ता सा धम्मकहत्ति। जा उण तिवग्गोवायाणसंबद्धा, कव्वकहा-गंथथवित्थरविरइया, लोइयवेयसमयपसिद्धा, उयाहरण-हेउ-कारणोववेया सा संकिण्णकह त्ति वुच्चइ । एयाणं च कहाणं तिविहा सोयारो हवंति। तं जहा-अहमा, मज्झिमा, उत्तम त्ति । तत्थ जे कोह-माण-माया-लोह-समाच्छाइयमई, परलोयदेसणपरंमुहा, इहलोगपरमत्थदंसिणो निरणुकंपा जीवेसु, ते तहाविहा तामसा अहमपुरिसा, दुग्गइगमणकंदुज्जयाए, सुगइपडिवक्खभूयाए, परमत्थओ अणत्थबहुलाए अत्थकहाए या पुनः कामोपादानविषया वित्तवपुर्वयःकलादाक्षिण्यपरिगता, अनुरागपुलकितप्रतिपत्तियोगसारा, दूतीव्यापाररतभावानुवर्तनादिपदार्थसंगता सा 'कामकथा' इति भण्यते । या पुनर्धर्मोपादानगोचरा, क्षमा-मार्दवाऽऽर्जव-मुक्ति-तपः-संयम-सत्य-शौचाऽऽकिञ्चन्य-ब्रह्मचर्यप्रधाना, अणवत - दिग्देशाऽनर्थदण्डविरतिसामायिक - प्रोषधोपवासोपभोगपरिभोगाऽतिथिसंविभागकलिता, अनुकम्पाऽकामनिर्जरादिपदार्थसंप्रयुक्ता सा 'धर्मकथा' इति (भण्यते)। ___ या पुनस्त्रिवर्गोपादानसंबद्धा, काव्य-कथा-ग्रन्थार्थविस्तरविरचिता, लौकिक-वेद-समयप्रसिद्धा, उदाहरण हेतु-कारणोपेता सा ‘संकाणकया' इति उच्यते । एतासां च कथानां त्रिविधाः श्रोतारो भवन्ति। तद्यथा-अधमाः, मध्यमाः, उत्तमा इति । तत्र ये क्रोध-मान-माया-लोभसमाच्छादितमतयः, परलोकदर्शनपराङ मुखाः, इहलोकपरमार्थदर्शिनः, निरनुकम्पा जीवेष, ते तथाविधाः तामसाः अधमपुरुषाः दुर्गति-गमनकन्दोद्यतायाम्, सुगति-प्रतिपक्षभूतायाम्, परमार्थतः अनर्थहम वाणिज्य तथा शिला से युक्त, विविध चित्र-विचित्र धातुओं के निर्वाण आदि के प्रमुख एवं महान उपायों से संप्रयुक्त तथा साम, भेद, उपप्रदान और दण्डादि पदार्थों से रचित कथा अर्थकथा कही जाती है। जिसमें काम सम्बन्धी उपादान (तथ्य) ही एकमात्र विषय है; धन, शरीर, अवस्था, कला और चातुर्य से जो युक्त है, प्रेम के कारण रोमाञ्चयुक्त अनुभूति होना ही जिसमें सार है तथा दूती के कार्यकलाप, मिलाप, आज्ञापालन आदि पदार्थों से जो युक्त है वह कामकथा कहलाती है । धर्म को ग्रहण करना ही जिसका विषय है। क्षमा, मार्दव, आर्जव, मुक्ति, तप, संयम, सत्य, शौच, आकिञ्चन्य (अपरिग्रह) तथा ब्रह्मचर्य की जिसमें प्रधानता है; अणुव्रत, दिग्वत, देशव्रत, अनर्थदण्डविरति, सामायिक, प्रोषधोपवास, उपभोग-परिभोग तथा अतिथिसंविभाग से जो सम्पन्न है; अनुकम्पा, अकामनिर्जरादि पदार्थों से जो सम्बद्ध है वह धर्मकथा कही जाती है। जो धर्म, अर्थ तथा कामरूप त्रिवर्ग का ग्रहण करने से सम्बद्ध है; काव्यकथारूप से ग्रन्थों में विस्तार से रची गयी है; लौकिक अथवा वैदिक शास्त्रों में जो प्रसिद्ध है; उदाहरण, हेतु तथा कारण से जो संयुक्त है, उसे संकीर्णकथा कहते हैं । इन कथाबों के श्रोता तीन प्रकार के होते हैं -अधम, मध्यम और उत्तम । जिनकी बुद्धि क्रोध, मान, माया और लोभ से आच्छादित रहती है, परलोक के दर्शन से जो पराङ्मुख हैं, इस लोक को ही जो यथार्थ मानते हैं, जो जीवों के प्रति करुणाभाव से रहित हैं ऐसे तामसी अधमपुरुष दुर्गतियों के गमन में दृढ़ता से उद्यत हैं तथा सुगति की विरोधी, यथार्थ रूप से जिसमें अनर्थों की बहलता है १. पुलइय, २. जोयसारा, ३. भणइ, ४. आकिंचण्ण, Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001881
Book TitleSamraicch Kaha Part 1
Original Sutra AuthorHaribhadrasuri
AuthorRameshchandra Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1993
Total Pages516
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Story, & literature
File Size13 MB
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