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________________ वामो भवो] १५१ तं च अच्चंतनिम्महमाणपुरीसकलमल गंधं फडियभित्तिपसुत्तसिरीसिवं भिणिभिणायमाणमसयमविखयाजालं दरिविवरमहविणिग्गयमसउक्केरं उरिविलंबमाणोरयनिम्मोयं लयातंतुविरइयवियाणयं, वासहरं पिव दुस्समाए, लीलामि पिव अधम्मस्स, सहोयरं पिव सीमंतयस्स, सहा विव' सव्वदुक्खसमुदयाणं, कुलहरं पिव सव्वजायणाणं, विस्सासभूमि पिक मच्चुणो, सिद्धिखेत्तं पिव कयंतस्स त्ति । तओ 'महाचारयं नीओ देवो' त्ति सोऊण सहसा विमक्कपकंदभेरवं अणवरयनिवडमाणेहिं महल्लमुत्ताहलसरिसेहिं अकज्जलवाहबिर्हि संपाइयहारसोहं देवसोएणं चेव परिमिलाणदेहं निरुज्झमाणं पि निउत्तपुरिसेहि मंगलमणिवलयझणझणारवुद्दाम सभूयाहि बलाओ पेल्लिऊण ते उरपोट्टकुट्टणुज्जयं तओ य अणुइयधरणिपरिसक्कणेणं साससमाऊरियाणणं परिचत्तकुडिलभावत्तणेण वि य 'अदंसणीया देवावत्थ' त्ति सूयगेहि पिव लंबालएहि निरुद्धनयणपसरं चारयमेव पत्तं कुसुमावलीपमुहमंतेउरं ति । दिट्ठो य तेण काललोहमयनियलसमाऊरिओ नरवई। तओ असोयपल्लवागारेहि हत्यहिं 'अणुचियातच्चात्यन्तनिर्मथ्यमानपुरीषकलमलगन्धं स्फुटितभित्तिप्रसुप्तसरीसृपं भणभणायमानमशकमक्षिकाजालं दरी विवरमुखविनिर्गतमूषकोत्करं उपरिबिलम्बमानोरगनिर्मोकं लूतातन्तुविरचितवितानकं, वासगृहमिव दुःषमायाः, लीलाभूमि रिवाधर्मस्य, सहोदरमिव सिमन्तकस्य, सखा इव सर्वदुःखसमुदयानाम्, कुल गृहमिव सर्वयातनानाम्, विश्वासभूमिरिव मृत्योः, सिद्धिक्षेत्रमिव कृतान्तस्येति । ततो 'महाचारकं नीतो देवः' इति श्रुत्वा सहसा विमुक्ताक्रन्दभैरवं अनवरतनिपतद्भिर्महन्मुक्ताफलसदृशैरकज्जलवाष्पबिन्दुभिः समादितहारशोभं देवशोकेनैव परिम्लानदेहं निरुध्यमानमपि नियुक्तपुरुषैः मङ्गलमणिवलयझणझणारवोद्दामं स्वभुजाभिर्बलात् पीडयित्वा तान् उरःपेट्टकट्टनोद्यतं ततश्चाऽनुचितधरणीपरिष्वष्कनेन श्वाससमापूरिताननं परित्यक्तकुटिलभावत्वेनापि च 'अदर्शनीया देवावस्था' इति सूचकैरिव लम्बालकनिरुद्धनयनप्रसरं चारकमेव प्राप्तं कुसुमावलीप्रमुखमन्तःपुरम् इति । दृष्टस्तेन काललोहमयनिगडसमापूरितो नरपतिः । ततोऽशोकपल्लवाकारैर्हस्तैः जाया गया। वह कारागार अत्यन्त मथे गये मल की दुर्गन्धि से युक्त था, वहाँ पर टूटी-फूटी दीवारों में सांप, बिच्छू सो रहे थे । मक्खी-मच्छरों के समूह का 'भन भन' शब्द हो रहा था, बिलों के मुख से चूहे निकल रहे थे। ऊपर सांप की केंचुली लटकी हुई थी। मकड़ियों ने जाल का समूह बना रखा था। वह कारागार मानो दुःखमा काल (अथवा नरक) का निवासगृह था, अधर्म की लीलाभूमि था, नरकाधिपति का सगा भाई था, समस्त दुःखों के समुदाय का सखा था, समस्त यातनाओं का कुलगृह था, मृत्यु की विश्वासभूमि था, तथा यम का सिद्धिक्षेत्र था। तदनन्तर 'महाराज को कारागार ले जाया गया है' सुनकर, कुसुमावली जिनमें प्रधान थी, ऐसा समस्त अन्तःपुर कारागार आया। यकायक उन्होंने जोर-जोर से रोना शुरू किया। लगातार गिरते हुए बड़े-बड़े मोतियों जैसे उनके सफेद अश्रु बिन्दुओं से हार की शोभा बन रही थी। महाराज के शोक से ही उनका शरीर म्लान हो गया था। नियुक्त पुरुषों द्वारा रोकी जाने पर भी मंगलमणियों से निर्मित झन झन शब्द करते कंगनों से उत्कट, अपनी भुजाओं से बलात् उन्हें पीटकर वक्षःस्थल और उदर के ताडन में उद्यत थीं। तदनन्तर अनुचित धरती पर पड़े होने से श्वास से जिनका मुख पूर्ण हो रहा था, कुटिल भावों को छोड़ देनेवाले, 'महाराज की अवस्था देखने योग्य नहीं है' ऐसी सूचना देनेवाले लम्बे-लम्बे बालों ने जिनके नेत्रों का विस्तार को रोक दिया था, ऐसी वे कारागार में आयीं। उसने काली लोहे की बेड़ी से बँधे हुए राजा को देखा । तब अशोक के नूतन किसलयों के समान हाथों से 'संसार बहुलता से अनुचित सेवन करने वाला है'-मानो यह दर्शाते हुए अथवा हार रूपी लता को धारण करने १, सह पिव--क-ग, २. रण-ख. ३. सभुयाहि-च । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001881
Book TitleSamraicch Kaha Part 1
Original Sutra AuthorHaribhadrasuri
AuthorRameshchandra Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1993
Total Pages516
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Story, & literature
File Size13 MB
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