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________________ १५० [ समराइचकहा रज्जेण, जं मे एएण दिन्नं संपज्जइ। तं पुण सलाहणिज्ज, जमेयं वावाइऊण वला घेप्पइ त्ति । एत्थंतरम्मि सद्दाविओ राइणा आणंदो। जाव नेच्छइ आगंतु, तओ मडिहारदुइओ गओ कुमारभवणं राया। तेण वि य 'न इओ सुंदरतरो पत्यावो' ति कलिऊण पुवाणुसयदोसेण सहसा 'हण हण'त्ति भणिऊण उक्खायासिणा अकयपरिरक्खणोवाओ सुविसथचित्तो पडिहारं वावाइऊण गाढप्पहारीकओ राया। एत्यंतरम्मि समुट्ठाइओ कलयलो, संजाओ नयरसेन्नसंखोहो, परिवेढिओ समंतओ रायसाहणेण आणंदो, पारद्धो संगामो। तओ राइणा नियसरीरदोहसवहेण सावियं सेन्नं । भणियं च ण । किं भे इयाणि जुझिएणं ? अहं ताव वावाइओ चेव दट्टव्वो, मा एवं पि वावाएह, ता करेह रायाभिसेयं एयस्स, एस भे राय त्ति । एत्थंतरम्मि समाणतो दुम्मई 'बंधेहि णं निविडबंधेहि' । तओ 'जं कुमारो आणवेइ' त्ति भणिऊण आसन्नीभूओ य से दुम्मई। पाडिया कुलपुत्तया, निन्भच्छिओ नायरजणो । तो बंधाविऊण पच्चइयपुरिसेहि सुकयपरिरक्खणोवाओ को राया । अहिट्टियं रज्ज, ठावियाओ ववत्थाओ, वसीकयं सामंतमंडलं। तओ अणुसयवसेण नेयाविओ नयरचारयं नरवई । राज्येन, यन्मे एतेन दत्तं सम्पद्यते । तत्पूनः श्लाघनीयम, यदेतं व्यापाद्य बलाद् गह्यते इति । अत्रान्तरे शब्दायितो राज्ञा आनन्दः । यावद् नेच्छति आगन्तुम्, तत: प्रतीहारद्वितीयो गतः कुमारभवन राजा । तेनापि च 'न इतः सुन्दरतरः प्रस्तावः' इति कलयित्वा पूर्वानुशयदोषेण सहसा 'ध्नत घ्नत' इति भणित्वा उत्खातासिनाऽकृतपरिरक्षणोपायः सुविश्वस्तचित्तः प्रतीहारं व्यापाद्य गाढप्रहरीकृतो राजा। अत्रान्तरे समुत्थितः कलकलः, संजातो नगरसैन्यसंक्षोभः, परिवेष्टितः समन्ततो राजसाधनेनानन्दः, प्रारब्धः संग्रामः । ततो राज्ञा निजशरीरद्रोहशपथेन शापितं सैन्यम् । भणितं च तेन-कि युष्माकमिदानी युद्धेन, अहं तावद् व्यापादित एव द्रष्टव्यः, मा एतमपि व्यापादयत, ततः कुरुत राज्याभिषेकमेतस्य, एष युष्माकं राजेति । अत्रान्तरे समाज्ञप्ता दुर्मतिः ‘वधान तं निविडबन्धैः, ततो 'यकुमार आज्ञापयति' इति भणित्वाऽऽसन्नीभूतश्च तस्य दुर्मतिः । पातिताः कुलपुत्रकाः, निर्भत्सितो नागरजनः। ततो बन्धयित्वा प्रत्ययितपुरुषैः सुकृतपरिरक्षणोपायः कृतो राजा। अधिष्ठितं राज्यम् स्थापिता व्यवस्थाः, वशीकृतं सामन्तमण्डलम् । ततोऽनुशयवशेन नायितो नगरचारकं नरपतिः । मुझे इसके द्वारा दिये गये राज्य से क्या प्रयोजन है ? वही प्रशंसनीय होगा जो इसको मारकर बलात् ग्रहण किया जायगा। इसी बीच राजा ने आनन्द को बुलाया। जब उसने आने की इच्छा नहीं की तब द्वारपाल को साथ लेकर राजा कुमार के भवन में गया। उसने भी, इससे सुन्दरतर समय कोई दूसरा नहीं है-यह मानकर पूर्वकर्मों के दोष से यकायक 'मारो, मारो,' ऐसा कहकर तलवार खींचकर, जिसने रक्षा का उपाय नहीं किया है, ऐसे विश्वस्त मन वाले द्वारपाल को मारकर, राजा के ऊपर गाढ़ प्रहार किया। इसी बीच कोलाहल हुआ । नगर की सेना में क्षोभ उत्पन्न हो गया। आनन्द चारों ओर राजसेना से परिवेष्टित हो गया। संग्राम प्रारम्भ हो गया। तब राजा ने अपने शरीर के प्रति द्रोह की शपथ दिलाकर सेना को आज्ञा दी। उसने कहा, "इस समय आप लोगों के युद्ध करने से क्या लाभ ? मुझे मरा देख ही लिया है, इसे मत मारो। इसका राज्याभिषेक करो। यह तुम्हारा राजा है।" इसी बीच आनन्द ने दुर्मति को आज्ञा दी-''उसे (राजा को) बेड़ियों से बांध दो।" तब 'जो कुमार आज्ञा दें ऐसा कहकर दुर्मति उसके करीब हो गया। कुलपुत्रों को मार दिया गया, नागरिकों की निन्दा की गयी। तब विश्वस्त पुरुषों से राजा को बंधवाकर उससे रक्षा का उपाय कर लिया। (स्वयं) राज्य पर अधिष्ठित हो गया, व्यवस्था स्थापित की, सामन्त मण्डल को वश में किया। तब घोर शत्रुतावश राजा को नगर के कारागार में ले For Private & Personal Use Only Jain Education International www.jainelibrary.org
SR No.001881
Book TitleSamraicch Kaha Part 1
Original Sutra AuthorHaribhadrasuri
AuthorRameshchandra Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1993
Total Pages516
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Story, & literature
File Size13 MB
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