________________
११२
[ समराइज्यकहा सेवणवहुलो संसारों' त्ति दंसयंत पिव हारलयावहणजणियखेयं पिव वच्छत्थलं ताडयंतं अहिययरमक्कंदिउं पवत्तं ति । तओ राइणा आरक्खिगेहिं च कहकहवि निवारियं । भणियं च राइणा-किमणेणायासमेत्तफलेण अहम्माणुबंधिणा य सोएणं । अइबहुविचित्तरूवो खु एस संसारो, खेलणयभूया इमस्स सत्वे सरीरिणो, दुन्निवारो य पसरो पुवकयकम्मस्स, जलहरंतरविणिग्गयसोयामणीवलयचंचला लच्छी, सुविणयसमो संगमो । एवमवसाणाणि एत्थ रागविलसियाणि । ता किमेइणा अविवेयजणाणुसरिसेण पलविएण ? पत्तमेव तुम्भेहि जीवलोयसारभूयं जिणव यणं । ता तं चेव अणुचिट्ठह। न तं मोत्तूण अन्नो दुक्खक्खओवाओ ति । तओ तमेयमायण्णिय एवमेवेयं न अन्नह' त्ति कलिऊण य अणुजाणाविऊण नरवई जीवियनिरवेक्खयाए वलाचेवाणंदस्स गंधव्वदत्ताए विज्जाहरसमणियाए सयासे पवन्नं पव्वज्ज ति।
इओ य पइदिणं कयत्थणाए वि कोहवसमगर छमाणेण 'एहहमेत्तं मे जीवियं कालोइयं संपयमणसणं ति पडिवन्न राइणा । आरविखगेहि निवेइयं आणंदस्स, कुविओ एसो, पेसिओ तेण देवसम्मो
'अनुचितासेवनबहुलः संसारः' इति दर्शयन्तमिव हारलतावहनज नितखेदमिव वक्षःस्थलं ताडयन्तमधिकतरमाक्रन्दितु प्रवृत्तमिति । ततो राज्ञा आरक्षकैश्च कथंकथमपि निवारितम् । भणितं राज्ञाकिमनेनायासमात्रफलेन अधर्मानुबन्धिना च शोकेन ? अतिबहुविचित्ररूपः खलु एष संसारः, खेलनकभूता अस्य सर्वे शरीरिणः, दुनिवारश्च प्रसरः पूर्वाकृतकर्मणः, जलधरान्तरविनिर्गतसोदामिनीवलयचञ्चला लक्ष्मीः, स्वप्नसमः संगमः, एवमवसानानि अत्र रागविलसितानि । ततः किमेतेनाविवेकजनानुसदृशेण प्रलपितेन । प्राप्तमेव युष्माभिर्जीवलोकसारभूतं जिनवचनम् । ततस्तदेवानुतिष्ठत, न तन्मुक्त्वाऽन्यो दुःखक्षयोपाय इति । ततस्तदेतदाकर्ण्य 'एवमेतद् नान्यथा' इति कलयित्वा चानुज्ञाप्य नरपति जीवितनिरपेक्षतया बलावेवानन्दस्य गन्धर्वदत्ताया विद्याधर श्रमण्या सकाशे प्रपन्ना प्रव्रज्येति ।।
इतश्च प्रतिदिनं कदर्थनयाऽपि क्रोधवशमगच्छता 'एतावन्मात्रं मे जीवितं, कालोचितं साम्प्रतमनशनम्' इति प्रतिपन्नं राज्ञा । आरक्षकैनिवेदितमानन्दस्य, कुपित एषः, प्रेषितस्तेन
के खेद से ही मानो वक्षःस्थल को पीटते हुए अत्यधिक रोना-चिल्लाना शुरू किया । तब राजा और पहरेदारों ने बडी कठिनाई से ही उन्हें रोका। राजा ने कहा-"कष्ट मात्र ही जिसका फल है और अधर्म का जो बन्ध कराने घाला है, ऐसे शोक से क्या लाभ ? यह संसार अत्यन्त विचित्ररूप वाला है। सभी प्राणी इस संसार के खिलौने हैं और पूर्वकृत कर्मों का विस्तार दुनिवार है। मेघों से निकली हुई बिजली के समान लक्ष्मी चंचल है। संयोग स्वप्न के समान है। राग के विलासों का यहां इस प्रकार से ही अन्त होता है। अतः अविवेकी मनुष्यों के समान इस प्रलाप से क्या ? आप लोगों ने संसार के सारभूत जिनेन्द्र भगवान् के वचनों को प्राप्त किया है । अतः उसी का अनुष्ठान करो। से छोड़कर दु:ख के नाश का कोई उपाय नहीं है। अनन्तर इसे सुनकर 'यह ऐसा है, अन्य प्रकार का नहीं ऐसा मानकर राजा का अनुमोदन करती हुई, जीवन की निरपेक्षता के कारण आनन्द की आज्ञा लिये बिना ही, उन्होंने गन्धर्वदत्ता नामक विद्याधर श्रमणी के पास दीक्षा स्वीकार कर ली।
इधर प्रतिदिन के अपमान पर भी क्रोध न करता हुआ 'मेरा जीवन इतना ही है, अब अनशन समयोचित हैं इस भाव को प्राप्त हुआ । सिपाहियों ने आनन्द से निवेदन किया। यह कुपित हुआ। उसने देवशर्मा नामक एक
१. दसणंत-च. २. आज्ञाम गृहीत्वेति शेषः ।
For Private & Personal Use Only
Jain Education International
www.jainelibrary.org