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बीमो भयो]
१५३ नाम नियमहल्लओ 'गच्छ भुंजावेहि'त्ति । वसवो य एसो 'अ जमाणं नियमा वावाएमिति । गओ देवसम्मो, दिट्ठो ते ग राया, भणिओ य- देव ! देव्ववसया पाणिणं विसमा कज्जगइ त्ति । एसो य देवो नाम अणाराहणीओ विणएण, अगुणाही गुणीणं, अकालन्न समीहियस्स, केवलमणत्थो जणाणं, मत्तहत्थि व्व सच्छंदयारी, गंगापवाहो व्व उज्जडिलो महाहवो व्व' निवायदक्खो, विसगंठि व्व नाणकलो रसाणं, पडिकलो या समीहियाणं, अणकलो असमीहियस्स। ता जइ वि एस एवंभओ, तहावि पुरिसेण खणमवि न पुरिसयारो मोत्तव्वो ति। जेण महाराय ! पुवोवज्जियाणं कम्माणं चेव एवं नामं देवतो, तं च पुरिसयारजेयमेव वट्टइ ति। ता अवलंबेउ देवो पुरिसयारं, करेउ आहारगहणं । जीवमाणो हि पुरिसो लंघिऊणाक्यं अवस्सं देव ! संपयं पावेइ त्ति । राइणा भणियंभो देवसम्म ! न मक्को मए चेव अहाकालापरूवो परिसथारो। पडिवन्ना य भावओ पध्वज्जा। अओ न संपयाभिलासरं मे चित्तं । उचियकालं च नाऊण पडिवन्न अणसणं। अओ न आहारगहणं करेमि त्ति । तेण भणियं-- अकीरमाणम्मि हार गहणे सुओ ते कुप्पिस्सइ । राइणा भणियंदेव शर्मा नाम निजमहत्तर: ‘गच्छ भोजय' इति । वक्तव्यश्चैष अभुञ्जानं नियमाद् व्यापादयामि' इति । गतो देवशर्मा, दृष्टस्तेन राजा, भणितश्च- देव ! दैववशगानां प्राणिनां विषमा कार्यगतिरिति । एष च देवो नाम अनाराधनीयो विनयेन, अगुणग्राही गुणिनाम्, अकालज्ञः समीहितस्य, केवलमनर्थो जनानाम्, मत्तहस्तीव स्वच्छन्दचारी, गङ्गाप्रवाह इव ऋजुकुटिलः, महाहव इव निपातदक्षः, विषयग्रन्थिरिव नानुकूलो रसानाम्, प्रतिव लश्च समीहितानाम्, अनुकूलोऽसमीहितस्य । ततो यद्यपि एष एवंभूतः, तथापि पुरुषेण क्षणमपि न पुरुषकारो मोक्तव्य इति । येन महाराज ! पूर्वोपार्जितानां कर्मणामेवेतन्नाम देवम्, तच्च पुरुषकारजेयमेव वर्तते इति । ततोऽवलम्बतां देवो पुरुषकारम्, करोतु आहारग्रहणम् । जीवन् हि पुरुषो लङ्घित्वाऽऽपदं अवश्यमेव संपदं प्राप्नोतीति । राज्ञा भणितम्-भो देवशर्मन् ! न मुक्त एव मया यथाकालानुरूपः पुरुषकारः, प्रतिपन्ना ॥ च भावतः प्रव्रज्या। अतो न संपदभिलाषपरं मे चित्तम । उचितकालं च ज्ञात्वा प्रतिपन्नमनशनम् । अतो न आहारग्रहणं करोमि इति । तेन भणि तम्-अक्रियमाणे आहारग्रहणे सुतस्तुभ्यं अपने बड़े व्यक्ति को भेजा और कहा-"जाओ, भोजन कराओ और इससे कहो, 'यदि भोजन नहीं करता है तो निश्चित रूप से मैं मार डालूगा।" देव शर्मा गया, उसने राजा के देखा और कहा--"महाराज ! भाग्य के वश प्राणियों के कार्य की गति विषम होती है। यह देव विनय से राधन करने योग्य नहीं है, गणी व्यक्तियों के दोषों को ग्रहण करने वाला है, इष्ट कार्य का समय नहीं जानता ।', मनुष्यों के लिए केवल अनर्थ रूप है, मदमत्त हाथी के समान स्वच्छन्द विचरण करने वाला है, गंगा के प्रवाह के समान सीधा और कुटिल है, महायुद्ध के समान मारने में निपुण है, विषयग्रन्थि के समान रसों के अनुकूल नहीं है, इष्ट वस्तुओं के प्रतिकल तथा अनिष्ट व्यक्तियों के अनुकूल है अतः यद्यपि यह इस प्रकार हुआ है तथा पुरुष को क्षण भर भी पुरुषार्थ नहीं छोड़ना चाहिए । चूकि महाराज ! पूर्वोपार्जित कर्मों का ही नाम देव है, वह पौरुष से ही जीते जा सकने योग्य होता है । अतः महाराज पुरुषार्थ का अवलम्बन कीजिए, भोजन ग्र ण कीजिए । जीता हुआ व्यक्ति आपत्तियों को पारकर अवश्य ही सम्पदा पा लेता है।" राजा ने कहा--- "हे देवशम ! मैंने समय के अनुरूप पुरुषार्थ को नहीं छोड़ा है। अब मैंने भावपूर्वक दीक्षा ग्रहण कर ली है। अतः मेरा मन स पत्ति की अभिलाषा वाला नहीं है। उचित समय को पाकर अनशन को प्राप्त हो गया हूँ, अतः आहार ग्रहण नहीं करूंगा।" उसने कहा- "यदि आप आहार नहीं
१, अंधयारो ब्व-ख।
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