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________________ ११४ [ समराइच्चकहा अकारणो से कोवो, सच्चपना खु तब रिसणाहवंति । तेण भणियं देव ! विइयवृत्तंतो चेव तुमं कुमारचरियस्स; ता मा ते पमायं करिस्सह । एत्थंतरम्मि 'चिरायइ देवसम्भो 'त्ति संजायामरिसवेगो तूण खगं आगओ आणंदो । भणियं च तेण - जइ न आहारगहणं करेसि, ता इमिणा कयंतजीहाणुगारिणा करवालेण सीसं ते छिन्दामि । राइणा भणियं जाणतो मरणंतं देहावासं असासयमसारं । को उम्बिएज्जं नरवर ! मरणस्स अवस्स गंतव्वे ॥२१॥ भभिमावीई सलिलच्छेए सरं व सूतं । अणुसमयं मरमाणं जियइ त्ति जणो कहं भणइ ॥ २१२ ॥ संपत्थियाण पर लोग मेगसत्थेण सत्थियाणं व । जइ तत्थ कोइ पुरओ वच्चइ भयकारणं किमिह ॥ २१३ ॥ जीयमणिच्चमवस्सं मरणं ति भणम्मि निच्छ्यं जस्स । सूणायारपसुस्त व का आसा जीविए तस्स ॥ २१४॥ कृषिष्यति । राज्ञा भणितम् - अकारणस्तस्य कोप:, सत्यप्रतिज्ञाः खलु तपस्विनो भवन्ति । तेन भणितम् - 'देव ! विदितवृत्तान्त एवं त्वं कुमारचरितस्य ततो मा ते प्रमादं कार्षीत् । अत्रान्तरे 'चिरायते देवशर्मा' इति संजातामर्षवेगो गृहीत्वा खङ्गमागत आनन्दः । भणितं च तेन - यदि नाहारग्रहणं करोषि ततोऽनेन कृतान्तजिह्वानुकारिणा करवालेन शीर्षं ते छिनद्मि । राज्ञा भणितम् जानन् मरणान्तं देहावासमशाश्वतमसारम् । क उद्विज्याद् नरवर ! मरणादवश्यगन्तव्ये ॥ २११ ॥ गर्भप्रभृति आवीच्या सलिलच्छेदे सर इव शुष्यत् । अनुसमयं म्रियमाणं जीवतीति जनः कथं भणति ॥ २१२ ॥ सम्प्रस्थितानां परलोकमेकसार्येण सार्थिकानामिव । यदि तत्र कोपि पुरतो व्रजति भयकारणं किमिह ॥ २१३ || जीवितमनित्यमवश्यं मरणमिति मनसि निश्चयं यस्य । नागारपशोरिव काशा जीविते तस्य ॥ २१४॥ करेंगे तो आपका पुत्र कुपित होगा ।" राजा ने कहा - "उसका क्रोध अकारण है; क्योंकि तपस्वी सत्यप्रतिज्ञा वाले होते हैं ।” उसने कहा- "महाराज ! आप कुमार के चरित्र को जानते ही हैं अत आपको प्रमाद नहीं करना चाहिए ।" इसी बीच 'देवशर्मा देर कर रहा है' इस प्रकार क्रुद्ध हुआ आनन्द तलवार लेकर आया। उसने कहा -"यदि आहार नहीं लेते हो तो यम की जीभ का अनुकरण करने वाली इस तलवार से तुम्हारा सिर काट डालूंगा ।" राजा ने कहा देह में आत्मा का वास केवल मरण तक अतः उसे अशाश्वत और असार जानकर हे नरश्रेष्ठ ! कौन अवश्य प्रापणीय (पाप योग्य) मरण से भयभीत होगा । गर्भ से लेकर निरन्तर पानी कम होते हुए सूखे तालाब के समान प्रति समय मरते हुए को जीता है, ऐसा जन कैसे कहलाता है ? प्रस्थान करते हुए व्यापारियों में से जिस प्रकार एक व्यापारी पहले चला जाता है, उसी प्रकार यदि कोई पहले परलोक चला जाता है, तो यहाँ भय का क्या कारण है ? जीवन अनित्य है, मरण आवश्यक है, ऐसा जिसके मन में निश्चय है उस व्यक्ति को कसाईखाने में बँधे हुए पशु के समान जीवन की क्या आशा है ? ।।२११-२१४ ।। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001881
Book TitleSamraicch Kaha Part 1
Original Sutra AuthorHaribhadrasuri
AuthorRameshchandra Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1993
Total Pages516
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Story, & literature
File Size13 MB
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