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________________ बीओ भवो 1 हंदि ! जराधणुहत्थो वाहिसयविइण्णसायगो एइ | माणुसमय जहवहं विहाणवाहो करेमाणो ॥ २१५॥ न गणेइ पच्चवायं न य पडियारं चिराणुवत्त वा । सच्छंदहं विहरइ हरि व्व मच्चू मयकुलेसु ॥ २१६॥ एक्के च्चिय निव्विण्णा पुणो पुणो जाइउं च मरिउं च । जे भवमच्चुव्विग्गा भवरोगहरं अणुचरंति ॥ २१७॥ जरमरणरोगसमणं जिणवयणरसायनं अमयसारं । पाउं परिणामसुहं नाहं मरणस्स बीहेमि ॥२१८॥ शोसियपावमलाणं परिसाडियबंधलोहनियलाणं । कि कुणइ फालमरणं कयपडियारं मणुस्साणं ॥ २१६ ॥ अज्जियतवोधणाणं कलेवरहरे विनिष्पिवासाणं । सं लिहियसरीराणं मरणं पि वरं सुविहियाणं ॥ २२० ॥ हन्त ! जराधनुर्हस्तो व्याधिशतवितीर्णसायक एति । मानुषमृगयूथवधं प्रभातव्याधः कुर्वन् ॥ २१५॥ न यति प्रत्यवायं न च प्रतिकारं चिरानुवृत्ति वा । स्वच्छन्दसुखं विहरति हरिरिव मृत्युमृगकुलेषु ॥२१६॥ एके एव निर्विण्णाः पुनः पुनर्जनितुं च मतु च । ये भवमृत्यूद्विग्ना भवरोगहरमनुचरन्ति ॥ २९७॥ जरामरणरोगशमनं जिनवचन रसायनममृतसारम् । प्राप्य परिणामसुखं नाहं मरणाद् बिभेमि ॥२१८॥ त्यक्तपालानां परिशाटितबन्धलोभनिगडानाम् । किं करोति कालमरणं कृतप्रतिकारं मनुष्याणाम् ॥ २१६ ॥ अर्जिततपोधनानां कलेवरगृहेऽपि निष्पिपासानाम् । संलिखितशरीराणां मरणमपि वरं सुविहितानाम् ॥ २२०॥ Jain Education International हाय ! बुढ़ापे रूपी धनुष को हाथ में लेकर सैकड़ों बीमारियों रूपी बाणों को बिखेरता हुआ विधाता रूपी बहेलिया मनुष्य रूपी मृगों के झुण्ड को वध करता हुआ आ रहा है । न तो बाधाओं को गिनता है, न प्रतीकार को और न चिरकालीन अनुसरण को ही गिनता है । सिंह जिस प्रकार मृगों के बीच स्वच्छन्द विहार करता है, उसी प्रकार मृत्यु भी मृतों के समूह में स्वच्छन्द सुख से विहार करती है । कुछ विरक्त पुरुष होते हैं जो पुनः जन्म और मृत्युरूप संसार से उद्विग्न होकर संसार रूपी रोग को हरण करने वाले वचन का अनुसरण करते हैं । बुढ़ापा और रोग को शान्त करने वाले परिणाम में सुखकारी जिनेन्द्र-वचन रूप अमृतमयी सारभूत रसायन को पाकर मैं मृत्यु से नहीं डरता हूँ । जिसने पापरूपी मल को दूर कर दिया है, बन्धनरूप लोभ की बेड़ियों को तोड़ डाला है, इस प्रकार प्रतीकार करने वाले मनुष्यों का मृत्यु क्या कर सकती है ? तपरूप धन का जिन्होंने अर्जन कर लिया शरीर रूप घर में भी जो प्यासे नहीं हैं, जिनका शरीर सल्लेखनामय है, इस प्रकार सत्कार्य करने वालों के लिए मरण भी अच्छा है ॥२१५-२२०॥ 老父認 For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001881
Book TitleSamraicch Kaha Part 1
Original Sutra AuthorHaribhadrasuri
AuthorRameshchandra Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1993
Total Pages516
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Story, & literature
File Size13 MB
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