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सानो भयो] अणुस(सि)छि ति । वासप्पयाणपुव्वयं भणियं गुरुणा-नित्थारगपारगो गुरुगुणेहिं बड्ढाहि । तओ वंदिऊण भणियं सिहिकुमारेणं-तुम्भं पवेइयं, संदिसह, साहूणं पवेएमि। गुरुणा भणियं-पवेएह । तओ वंदिऊण नमोक्कारपाढेण कयं पयाहिणमणेण। नित्थारगपारगो गुरुगणेहि वड्ढाहि त्ति भणमाणेहि दिन्ना गुरुमादीहि वासा । ठिओ मणागमग्गओ। एवं तिणि वारे । तओ पडिओ परमगुरुपाएस, आयरियस्स य निसण्णस्स, कयं निरुद्धं अणुसासिओ गुरुणा। एवं पवन्नो इमस्स पायमले विसुज्झमाणेणं परिणामेणं जिणोवदिठेणं विहिणा सयलदुक्खपरमोसहि महापव्वज्जं ति।
अहिणन्दिओ आणंदवाहजलभरियलोयणेणं राइणा बंभयत्तेणं नयरजणवएण य । अओ कइवयदियो तत्थाऽऽसिऊण समत्ते मासकप्पे गओ भगवया सह खेत्तंतरम्मि। एवं च निरइयारं सामण्णमणुवालेंतस्स अइक्कन्ता अणेगे वरिसलक्खा । इओ य समुप्पन्नो जालिणीए अणुयावो। हा! दुठ्ठ मए ववसियं, जेण एसो अवावाविओ चेव निग्गओ त्ति । ता पेसेमि से पेसलक्यणसारं संदेसयपुव्वयं किंचि उवायणं, जेण एसो पुणो वि कहंचि इहागच्छइ, तओ वावाइस्सं ति। अणुचिठ्ठियं
इति । वासप्रदानपूर्वकं भणितं गुरुणा-निस्तारकपारगो गुरुगुणैर्वर्धस्व । ततो वन्दित्वा भणितं शिखि कुमारेण-तुभ्यं प्रवेदितं, सन्दिशत, साधूनां प्रवेदयामि । गरुणा भणितम्-प्रवेदयत । ततो वन्दित्वा नमस्कारपाठेन कृतं प्रदक्षिणमनेन । निस्तारक-पारगो गुरुगुणैर्वर्धस्वेति भणद्भिः दत्ता गुर्वादिभिर्वासाः। स्थितो मनाग् मार्गतः, एवं श्रीन् वारान् । ततः पतितः परमगुरुपादेषु,
आचार्यस्य निषण्णस्य च, कृतं निरुद्धम्-अनुशासितो गुरुणा। एवं प्रपन्नोऽस्य पादमूले विशुद्धयमानेन परिणामेन जिनोपदिष्टेन विधिना सकलदुःखपरमौषधि महाप्रवज्याम्-इति ।
___ अभिनन्दित आनन्दवाष्पजलभृतलोचनेन राज्ञा ब्रह्मदत्तेन नगरजनपदेन च । ततः कतिपयदिवसान तत्र आसित्वा समाप्ते मासकल्पे गतो भगवता सह क्षेत्रान्तरम् । एवं च निरतिचारं श्रामण्यमनुपालयतोऽतिक्रान्तानि अनेकानि वर्षलक्षाणि । इतश्च समुत्पन्नो जालिन्या अनुतापः । हा ! दुष्ठ मया व्यवसितम्, येन एषोऽव्यापादित एव निर्गत इति । तावत् प्रेषयामि तस्य पेशलवचनसारं सन्देशपूर्वकं किंचिद् उपायनम्, येन एष पुनरपि कथंचिद् इह आगच्छति । ततो व्यापा"संसार से पार उतारने में प्रवीण गुरु के गुणों से वृद्धि को प्राप्त होओ।" तब वन्दना कर शिखिकुमार ने कहा"तुम्हारा कहा हुआ, आदेश दिया हुआ साधुओं के सामने कहता हूँ।" गुरु ने कहा-"कहो।" तब वन्दना कर नमस्कारपूर्वक इसने प्रदक्षिणा दी । 'संसार से पार उतारने वाले गुरु के गुणों में वृद्धि को प्राप्त हो ऐसा कहते हुए गुरु आदि ने वस्त्र दिये । इस प्रकार तीन बार याचना करते हुए कुछ समय स्थित रहा । तब परम गुरु आचार्य और बैठे हुए अन्य साधुओं के चरणों में पड़ गया और रोककर आचार्य ने उपदेश दिया। इस प्रकार चरणों में गिरे हुए, विशुद्ध परिणाम वाले इसने जिनोपदिष्ट विधि से समस्त दुःखों के लिए परम औषधि स्वरूप दीक्षा ले ली।
आनन्द से आंखों में आंसू भरकर ब्रह्मदत्त और नगरनिवासियों ने अभिनन्दन किया । तब कुछ दिन वहाँ रहकर एक मास समाप्त होने पर भगवान् के साथ दूसरे क्षेत्र को गया। इस प्रकार निरतिचार मुनिधर्म का पालन करते हुए अनेक लाख वर्ष बीत गये। इधर जालिनी को दुःख हुआ कि मैंने बुरा किया जो कि यह बिना मारे ही निकल गया। अतः चिकनी-चुपड़ी बातों भरा सन्देश भेजकर कुछ भेंट भेजती हूँ, जिससे कदाचित् यह पुनः
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