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________________ २१८ [समराइचकहा च तीए जहासमीहियं पेसिओ बहुविहसंदेसगन्भिणं कंबलरयणमादाय सोमदेवो । गओ य सो देसविक्खायायरियपउत्तिपुच्छणणं तमालसन्निवेससंठियस्स सिहिकुमारस्स [समीवं] । दिट्ठो य तेण पच्चुच्चारएण साहूण सुत्तत्थमणुभासयंतो सिहिकुमारो। वंदिओ पहढवयणपंकएण। धम्मलाहिओ तेणं । पच्चभिन्नाओ य पच्छा। पुच्छिओ य 'कओ भवं' ति ? तेण भणियं-देव ! कोसंबनयराओं अचंच्तमणुतावाणलडज्झमाणदेहाए जणणीए भवओ चेव पउत्तिनिमित्तं पेसिओ म्हि । सिहिकुमारेणं भणियं-को वि य अणुयावो अंबाए ? सोमदेवेण भणियं-जं तुम पव्यइओ ति। तओ सिहिकुमारेण चितियं-अहो णु खलु नेहकायराणि अपरमत्थपेच्छीणि जणणिहिययाइं होंति, दुप्पडियाराणि य मायापितीणि त्ति चितिऊण भणियं-भो सोमदेव ! न खलु अहं अंबानिव्वेएणं पव्वइओ, अवि य भवनिव्वेएणं ति । ता अकारणं अणुतप्पइ अंबा। सोमदेवेण भणियं-देव ! भणियं ते जणणीए, जहा—'जाय! थेव हियओ, अविवेगभायणं, अविमिस्सयारी, चंचलसहावो, पभवंतमच्छरी, असग्गाहनिरओ, पच्छाणुयावी महिलायणो होइ। पुरिसो उण गंभीरहियओ, विणयभायणं, सुवि दयिष्य इति । अनुष्ठितं च तया यथासमीहितम् । प्रेषितो बहुविधसन्देशगभितं कम्बलरत्नमादाय सोमदेवः । गतश्च स देशविख्याताचार्यप्रवृत्तिप्रच्छनेन तमालसन्निवेश संस्थितस्य शिखिकुमारस्य (समीपम्)। दृष्टश्च तेन प्रत्युच्चारकेन साधूनां सूत्रार्थमनुभासयन् शिखिकुमारः। वन्दितः प्रहृष्टवदनपङ्कजेन । धर्मलाभितश्च तेन । प्रत्यभिज्ञातश्च पश्चात् । पृष्टश्च-'कुतो भवान् ?' इति। तेन भणितम्-देव ! कोशाम्बनगराद् अत्यन्तमनुतापानलदह्यमानदेहया जनन्या भवत एव प्रवृत्तिनिमित्तं प्रेषितोऽस्मि । शिखिकुमारेण भणितम्-कोऽपि च अनुतापोऽम्बायाः ? सोमदेवेन भणितम-यत् त्वं प्रवजित इति । ततः शिखिकुमारेण चिन्तितम--'अहो ! नु खल स्नेहकातराणि अपरमार्थप्रेक्षीणि जननीहृदयानि भवन्ति, दुष्प्रतीकाराश्च मातापितर इति चिन्तयित्वा भणितम्भोः सोमदेव ! न खलु अहं अम्बानिर्वेदेन प्रवजितः, अपि च भवनिर्वेदेन इति । ततोऽकारणमनुतप्यतेऽम्बा । सोमदेवेन भणितम्-देव ! भणितं तव जनन्या, यथा-जात ! स्तोकहृदयः, अविवेकभाजनम. अविमश्यकारी, चञ्चलस्वभावः, प्रभवत्मत्सरी, असदग्राहनिरतः, पश्चादनतापी आ जायेगा । तब मैं मार डालूगी। उसने अभिलषित कार्य को किया। अनेक प्रकार का सन्देश देकर रत्नकम्बल के साथ उसने सोमदेव को भेजा। वह देश में विख्यात आचार्य का समाचार पूछने के लिए तमाल सन्निवेश में स्थित शिखिकुमार के पास गया । उसने सूत्र के अर्थ का भाष्य करते हुए शिखिकुमार को देखा । साधु लोग उनके कहने के अनुसार उच्चारण कर रहे थे। हर्षित मुखकमल वाले सोमदेव ने उनकी वन्दना की। शिखिकुमार ने धर्मलाभ दिया, पश्चात् पहचान लिया और पूछा-"आप कहाँ से ?" उसने कहा-"महराज! कोशाम्ब नगर से अत्यन्त दुःख रूपी अग्नि से जलते हुए शरीरवाली माता ने आपका हालचाल जानने के लिए मुझे भेजा है। शिखिकुमार ने कहा-“माता को क्या दुःख है ?" सोमदेव ने कहा--- "आप दीक्षित हो गये।" तब शिखिकुमार ने विचार किया-आश्चर्य है, परमार्थ को न जानने वाली माताओं के हृदय स्नेह से दुःखी होते हैं। माता-पिता के दुःख का प्रतिकार कठिन है, ऐसा विचारकर कहा- "हे सोमदेव ! मैं माता से विरक्त होकर दुःखी नहीं हुआ हूँ अपितु संसार से विरक्त होकर दुःखी हुआ हूँ । अतः माता अकारण दुःखी हो रही है ।" सोमदेव ने कहा-"महाराज! आपकी माता ने कहा है कि हे पुत्र ! महिलाएं तुच्छ हृदय वाली, अविवेक की पात्र, बिना विचारे कार्य करने वाली, चंचल स्वभाव वाली, जन्मतः द्वेष रखने वाली, असत् को ग्रहण करने में रत तथा बाद में दुःखी होने वाली 1. कौसन०-क-ग। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001881
Book TitleSamraicch Kaha Part 1
Original Sutra AuthorHaribhadrasuri
AuthorRameshchandra Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1993
Total Pages516
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Story, & literature
File Size13 MB
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