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________________ तहको भवो] २१६ मिस्सयारी, अचंचलसहावो, कयन्न, दढाणुराओ, बहुयावेक्खगो त्ति । ता कि तए मम हिययं अयाणिऊण एवं ववसियं ति । अन्नं च-पवन्मपरलोयमग्गेण वि भयवया अवस्समहं पेक्खियव्व ति। उवणीयं च ते कंबलरयणं । एयं च भयवया अवस्सं घेत्तव्वं ति । सिहिकुमारेण भणियं-भो सोमदेव! भणियं मए- 'अकारणे अणतप्पइ अंबा' । जं च भणियं, अवस्समहं पेक्खियव्व ति', एत्थ वि गुरू पमाणं । अणहियारो मम अपवसयत्तणस्त । एवं पि कंबलरयणं अणुचियं चेव साहूणं, तहा वि भयवओ निवेएहि त्ति । तओ दंसिओ से एगेण साहुणा गुरू । निवेइओ तेण एस वुत्तंतो भयवओ। उवणीयं च कंबलरयणं । कुमारबहुमाणओ गहियं गरुणा, भणियं च-मोत्तूणमंतरायं पेसिस्सं अहिगयसुयसमत्तीए कुमारं । सोमदेवेण भणियं-- भगवं ! अणुग्गिहीया से जणणी । एवं च कइवयदियहे चिट्टिऊण गओ सोमदेवो। अइक्कंतो कोइ कालो कुमारस्स तव-संजमं करेंतस्स। अन्नया य कोसंबनयरासन्नविसयविहारेण कुओइ पुरिसाओ 'उवरओ बंभयत्तो'त्ति समुवलद्धपउत्तिणा सयणामहिलाजनो भवति । पुरुषः पुनः गम्भीरहृदयः, विनयभाजनम्, सुविमृश्यकारी, अचञ्चलस्वभावः, कृतज्ञः, दृढानुरागः, बहुकावेक्षक इति। ततः किं त्वया मम हृदयमज्ञात्वा एतद् व्यवसितमिति । अन्यच्च-प्रपन्नपरलोकमार्गेणाऽपि भगवता अवश्यमहं प्रेक्षितव्या इति । उपनीतं च तव कम्बलरत्नम् । एतच्च भगवता अवश्यं ग्रहीतव्यमिति । शिखिकुमारेण भणितम्-भोः सोमदेव ! भणितं मया-'अकारणे अनुतप्यते अम्बा' । यच्च भणितम् 'अवश्यमंहं प्रेक्षितव्या' इति, अत्राऽपि गुरवः प्रमाणम् । अनधिकारो मम आत्मवशगत्वस्य । एतदपि कम्बलरत्नमनुचितमेव साधनाम् । तथापि भगवतो निवेदय इति । ततो दर्शितस्तस्य एकेन साधुना गुरुः । निवेदितस्तेन एष वृत्तान्तो भगवतः। उपनीतं च कम्बलरत्नम् । कुमारबहुमानतो गृहीतं गुरुणा, भणितं च-मुक्त्वा अन्तरायं प्रेषयिष्ये अधिकृतश्रुतसमाप्तौ कुमारम् । सोमदेवेन भणितम्-भगवन् ! अनुगृहीता तस्य जननी । एवं च कतिपयदिवसान स्थित्वा गतः सोमदेवः । अतिक्रान्तः कश्चित् कालः कुमारस्य तपः-- संयम कुर्वतः । अभ्यदा च कोशाम्बनगरासन्नविषयविहारेण कुतश्चित् पुरुषात् 'उपरतो ब्रह्मदत्तः' इति समुपलब्धया पश्चात्ताप करने वाली होती हैं और पुरुष गम्भीर हृदय, विनय के पात्र, भलीभाँति सोचकर कार्य करने वाले, चंचल स्वभाव से रहित, कृतज्ञ, दृढ़ अनुराग रखने वाले और अनेक प्रकार से निरीक्षण करने वाले होते हैं । अतः आपने मेरे हृदय को बिना जाने ही यह क्या निश्चय किया ? दूसरी बात यह है कि परलोक के मार्ग को प्राप्त होने पर भगवान् को मुझे अवश्य दर्शन देना चाहिए था। आपका मैं कम्बलरत्न लाया हूं। इसे भगवन्, अवश्य ग्रहण करें।" शिखिकुमार ने कहा- "हे सोमदेव ! मैंने कहा-माता अकारण दुःखी होती हैं तथा जो कहा कि मुझे अवश्य दर्शन करना चाहिए, इस विषय में गुरु प्रमाण हैं, अर्थात् गुरु से आज्ञा लूगा। मुझे स्वच्छन्द होने का अधिकार नहीं है। यह कम्बलरत्न भी साधुओं के लिए अनुचित है। तो भी भगवान् से निवेदन करेंगे। तब उसे एक साधु ने गुरु दर्शन करया। उसने गुरु से यह वृत्तान्त निवेदन किया और रत्नकम्बल लाया। कुमार के प्रति आदर के कारण गुरु ने ग्रहण किया और कहा-"अन्तराय को छोड़कर श्रुताधिकार समाप्त होने पर कुमार को भेजूंगा।" सोमदेव ने कहा-"भगवान् ! उनकी मां अनुगृहीत हुईं।" इस प्रकार कुछ दिन ठहरकर सोमदेव चला गया। कुछ समय तप और संयम करते हुए कुमार का काल व्यतीत हुआ। एक बार जबकि संघ कोशाम्ब नगर के निकटवर्ती देश में विहार कर रहा था, किसी पुरुष से 'ब्रह्मदत्त की मृत्यु हो गयी' यह समाचार Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001881
Book TitleSamraicch Kaha Part 1
Original Sutra AuthorHaribhadrasuri
AuthorRameshchandra Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1993
Total Pages516
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Story, & literature
File Size13 MB
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