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________________ १२० [समरापहा लोयणनिमित्त चेव साहिऊण एयरस वुत्तंतं कइवयनुसाहुपरिवारिओ पेसिओ सिहिकुमारो भयवया विजयसिंहायरिएण कोसंबनयरं ति । पत्तो य सो तयं । आवासिओ मेहवणाभिहाणे उज्जाणे। जाओ य जणवाओ, अहो ! आगओ भयवं सिहिकुमारो। पूइओ राय-नायरेहिं । कया य तेणमक्खेवणी धम्मकहा। आवज्जयिा य नायरया। बिइयदियहम्मि गओ जणमिसयासं । दिट्ठा य तेणं पावोदएण विय बंभयत्तमरणेण अच्चंतझोणविहवा असंभाविज्जमाणावत्था सजणणी। न पच्चभिन्नाया य । पच्चभिन्नाओ य एसो तीए। तओ सहजमायासहावेण बाहजलभरियलोयणं सदुक्खमिव भेरवसरं परइया एसा। समासासिया सिहिकुमारेणं । कया य से धम्मदेसणा। अंब ! ईइसो चेव एस संसारवासो । ता कि एत्य कीरउ ति। अवि य अत्थेण विक्कमेण य सयणेण बलेण चाउरंगेण । नो तीरइ धरिलं जे मच्च देवाऽसरेहि पि ॥३२॥ वाहि-जराखरदाढो वसणसयनिवायतिक्खनहजालो। जीवमयघायणरओ मरणमइंदो जगे भमह॥३२१॥ प्रवत्तिना स्वजनाऽऽलोकनिमित्तं चैव कथयित्वा एतस्य वृत्तान्तं कतिपयसुसाधुपरिवारितः प्रेषितः शिखिकुमारो भगवता विजयसिंहाचार्येण कोशाम्बनगरमिति । प्राप्तश्च स तत् । आवासितो मेघवनाभिधाने उद्याने । जातश्च जनवादः, अहो ! आगतो भगवान् शिखिकुमारः। पूजितो राजनागरैः। कुता च तेन आक्षेपणी धर्मकथा । आवजिताश्च नागरकाः। द्वितीयदिवसे गतो जननीसकाशम् । दृष्टा च तेन पापोदयेन इव ब्रह्मदत्तमरणेन अत्यन्तक्षोणविभवा असम्भाव्यमानाऽऽवस्था स्वजननी।न प्रत्यभिज्ञाता च । प्रत्यभिज्ञातश्च एष तया। ततः सहजमायास्वभावेन वाष्पजलभूतलोचनं सदुःखमिव भैरवस्वरं प्ररुदिता एषा। समाश्वासिता शिखिकुमारेण। कृता च तस्य धर्मदेशना । बम्ब ! ईदृश एव एष संसारवासः । ततः किमत्र क्रियतामिति । अपि च अर्थेन विक्रमेण च स्वजनेन बलेन चातुरङ्गेण । न तीर्यते धतुं यो मृत्युर्देवाऽसूरैरपि ॥३२॥ व्याधि-जराखरदंष्ट्र: व्यसनशतनिवाततीक्ष्णनखजालः । जीवमृगघातनरतो मरणमृगेन्द्रो जगति भ्रमति ॥३२१॥ जानकर यह वृत्तान्त कहकर कुछ उत्तम साधुओं के साथ स्वजनों को देखने के लिए भगवान विजयसिंह आचार्य ने शिखिकुमार को कौशाम्बनगर भेजा । शिखिकुमार आये और मेघवन नामक उद्यान में ठहर गये। लोगों में चर्चा होने लगी कि ओह ! शिखिकुमार आये हैं। राज्य के नागरिकों ने उनकी पूजा की। शिखिकुमार ने आक्षेपिणी धर्मकथा की। नागरिक लोग लौट आये। दूसरे दिन माता के पास गये। उन्होंने ब्रह्मदत्त के मरने पर पापोदय से अत्यन्त क्षीण वैभववाली तथा जिस अवस्था की सम्भावना नहीं की जा सकती थी, ऐसी अवस्थावाली अपनी माता को देखा, किन्तु पहचाना नहीं। इसे माता ने पहिचान लिया । तब सहज मायामयी स्वभाव से आंखों में आँसू भरकर मानो दुःखसहित जोर का शब्द करती हुई यह रोने लगी। शिखिकुमार ने आश्वासन दिया, उसे धर्मोपदेश दिया-"माता ! संसार का निवास ऐसा ही है। अतः इस विषय में क्या किया जाय ! कहा भी है __ धन, पराक्रम, बन्धुबान्धवादि स्वजन, चतुरंग सेना, देव और असुरों के द्वारा भी जिस मृत्यु से रक्षा नहीं की जा सकती है, ऐसा वह मृत्युरूपी सिंह रोग और बुढ़ापा रूपी तीक्ष्ण दाढ़ों को धारण कर और सैकड़ों विपत्तियों में गिराने रूप तीक्ष्ण नाखूनों के समूह से जीवरूप मृगों को मारने में रत होकर संसार में भ्रमण करता है ॥३२०-१२॥ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001881
Book TitleSamraicch Kaha Part 1
Original Sutra AuthorHaribhadrasuri
AuthorRameshchandra Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1993
Total Pages516
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Story, & literature
File Size13 MB
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