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________________ [समराइचकहा, कुमारो । गओ जत्थ भयवं विजयसिंघायरिओ ति। ओइण्णो सिवियाओ। वंदिओ गुरू। गुरुणा वि कए आवस्सए तं वामपासे ठविऊण वदिया परमगुरवो। तओ विहिवंदणं दाऊण भणियं सिहिकुमारेण- इच्छाकारेण पव्यावेह । तओ गुरुणा 'इच्छामो' त्ति भणिऊण नमोक्कारपाढण विहिपुत्वयं अप्पियं से रयहरणं 'साहुलिंगं ति । बहुमाणओ गहियं सिहिकुमारेणं । वंदिऊण गुरुं पुणो भणियमणेण---इच्छाकारेण मुडावेह । तओ 'इच्छामो' त्ति भणिऊण नमोक्कारपुव्वयं अतुट्टाओ गुरुणा गहियाओ तिणि अट्ठाओ। तओ बंदिऊण गुरुं, भणियं सिहिकुमारेण- इच्छाकारेण सामाइयं मे आरोवेह । 'इच्छामो' त्ति भणिऊण तदारोवणनिमित्तं समं सिहिकुमारेण कोण काउस्सग्गो, चितिओ थओ, पारिओ नमोक्कारेण तओ। नमोक्कारपुग्वयं तिण्णि वाराओ कढियं सामाइयं, महासंवेगसारं अणुकड्ढ्यिं सिहिकुमारेण । तओ गहिया वासा गुरुणा दिन्ना परमगुरुपाएसु, तहा सन्निहियाणं साहमादीण य । एत्थंतरम्मि वंदिऊण गुरुं भणियं सिहिकुमारेण-संविसह, कि भणामि ? गुरुणा भणियं-वंदित्तु पवेएह । तओ वंदिऊण जंपियमणेण-तुम्भेहिं मे सामाइयमारोवियं, इच्छामि इति । अवतीर्णः शिविकातः । वन्दितो गुरुः । गुरुणा अपि कृते आवश्यके तं वामपार्वे स्थापयित्वा वन्दिताः परमगुरवः । ततो विधिवन्दनं दत्त्वा भणितं शिखिकुमारेण-इच्छाकारेण प्रवाजयत । ततो गुरुणा 'इच्छामः' इति भणित्वा नमस्कारपाठेन विधिपूर्वकमर्पितं तस्य रजोहरणं 'साधलिङ्गम्'-इति । बहुमानतो गृहीतं शिखिकुमारेण। वन्दित्वा गुरुं पुनर्भणितमनेन-इच्छाकारेण मुण्डयत । ततः 'इति भणित्वा नमस्कारपूर्वकम् अत्रुटिता गुरुणा गृहीतास्त्रयोऽर्थाः । ततो वन्दित्वा गुरुं भणितं शिखिकुमारेण-इच्छाकारेण सामायिकं मम आरोपयत । 'इच्छामः' इति भणित्वा तदाऽरोपणनिमित्तं समं शिखिकुमारेण कृतोऽनेन कायोत्सर्गः, चिन्तितः स्तवः, पारितो नमस्कारेण । ततो नमस्कारपूर्वकं त्रीन वारान् कर्षितं सामायिकम्, महासंवेगसारमनुकर्षितं शिखिकुमारेण । ततो गृहीता गुरुणा वासाः, दत्ता: परमगुरुपादेषु, तथा सन्निहितानां साध्वादीनां च । अत्राऽन्तरे वन्दित्वा गुरुं भणितं शिखिकुमारेण-संदिशत, किं भणामि ? गुरुणा भणितम्-वन्दित्वा प्रवेदयत । ततो वन्दित्वा जल्पितमनेन- युष्माभिर्मम सामायिकमारोपितम्, इच्छामि अनुशिष्टिम् थे। (वह) पालकी से उतरा, गुरु की वन्दना की। गुरु ने भी आवश्यक कार्य करने पर उसे बायीं ओर बैठाकर परम गुरुओं की वन्दना की। तब विधिपूर्वक वन्दनाकर शिखिकुमार ने कहा- "इच्छाकार से प्रवजित करो।" तब गुरु ने 'इच्छामः' कहकर नमस्कार मन्त्र का पाठ कर विधिपूर्वक उसको साधु का चिह्न 'रजोहरण' दिया। बहुत आदर के साथ शिखिकुमार ने लिया । गुरु की वन्दना कर पुनः कहा- "इच्छाकार से मुण्डन करो।" तब 'इच्छामः' ऐसा कहकर नमस्कारपूर्वक गुरु से गृहीत तीन पदार्थ तोड़े । तब गुरु की वन्दना कर शिखिकुमार में कहा- "इच्छाकार से मुझ पर सामायिक आरोपित करो।" 'इच्छामः' ऐसा कहकर गुरु ने उस पर सामायिक आरोपण करने के निमित्त शिखिकुमार के साथ ही कायोत्सर्ग किया, स्तुति सोची, नमस्कार से पारित किया । तब नमस्कारपूर्वक तीन बार सामायिक किया। महान् वैराग्य से युक्त हो शिखिकुमार ने उसका अनुसरण किया। तब गुरु से कपड़े लिये, परम गुरु तथा साधुओं के चरणों में नमस्कार किया। इस बीच शिखिकुमार ने गुरु को प्रणाम कर कहा-"आज्ञा दो क्या कहूँ ?" गुरु ने कहा--"नमस्कार कर कहो।" तब नमस्कार कर इसने कहा "आपने मुझ पर सामायिक आरोपित किया। अब मैं कर्त्तत्याकर्त्तव्य चाहता हूँ।" वस्त्रदानपूर्वक गुरु ने कहा Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001881
Book TitleSamraicch Kaha Part 1
Original Sutra AuthorHaribhadrasuri
AuthorRameshchandra Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1993
Total Pages516
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Story, & literature
File Size13 MB
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