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ती भवो
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विरई, निसिभत्तवज्जणं, रागदोसादिनिग्गहो य । पावकारणं पुण इणमेव विवरीयं ति । तओ एयमायणिऊण पवन्नो सावयधम्मं समं बंभदत्तेण पिंगको । भणियं च बंभदत्तेण - भयवं ! एस मे सिहिकुमारो सुओ होइ; ववसिओ य एसो महापुरिसोचिए अणुट्ठाणे | अणुमयं च मे संपयमिमं एयस्स ववसियं, ताकि एयस्स अणुट्टाणस्स उचिओ, अणुचिओ त्ति वा ? भयवया भणियं - न रयणायरप्पसूयं रयणं पडिबंधस्स अणुचियं । तओ हरिसवसुप्पुलइयंगेण 'करेउ एस इमं ममं पि मणोरहगोयरं' ति चितिऊण भणियं बंभयत्तेण वच्छ ! अणुन्नाओ मए तुमं, करेहि तवसंजमुज्जोयं ति । तभ सहरिसं पणमिऊण भणियं सिहिकुमारेण - ताय ! अणुग्गिहोओ म्हि । तओ वंदिऊण गुरुं पविट्ठा नयरं । बंभयत्तेण वि य दवावियमाघोसणापुव्वयं महादाणं, कराविया जिणाययणाईसु अट्ठाहिया महिमा । तओ पसत्थे तिहि करण महत्त-जोगे महया पमोएण, दिव्वाए बिभूईए, परियरिओ रायनायर एहि, दिव्वं सिवियमारूढो, वज्र्ज्जतेहि मंगलतूर संघाएहि, पसंसिज्जमाणो विवहलोएणं, सक्खमालोएज्जमाणो पुरसुंदरीहि, देतो जहासमीहियं अस्थिजणाण दाणं निग्गओ नयराओ सिहि
मैथुन - परिग्रहाणां विरतिः, निशाभक्त (भोजन) वर्जनम्, रागद्वेषादिनिग्रहश्च । पापकारणं पुनरिदमेव विपरीतमिति । तत एतद् आकर्ण्य प्रपन्नः श्रावकधर्मं समं ब्रह्मवत्तेन पिङ्गकः । भणितं च ब्रह्मदत्तेन - भगवन् ! एष मम शिखिकुमारः सुतो भवति; व्यवसितश्च एष महापुरुषोचिते अनुष्ठाने | अनुमतं च मया साम्प्रतमिदमेतस्य व्यवसितम् । ततः किमेतस्य अनुष्ठानस्य उचितः अनुचित इति वा ? भगवता भणितम् - न रत्नाकरप्रसूतं रत्नं प्रतिबन्धस्यानुचितम् । ततो हर्षवशोत्पुलकिताङ्गेन 'करोतु एष इमं ममाऽपि मनोरथगोचरम्' इति चिन्तयित्वा भणितं ब्रह्मदत्तेन - वत्स ! अनुज्ञातो मया त्वम्, कुरु तपसंयमोद्योगम् - इति । ततः सहर्षं प्रणम्य भणितं शिखिकुमारेणतात ! अनुगृहीतोऽस्मि । ततः वन्दित्वा गुरुं प्रविष्टो नगरम् । ब्रह्मदत्तेनापि च दापितमाघोषणापूर्वकं महादानम्, कारिता जिनायतनादिपु अष्टाहिका महिमा । ततः प्रशस्ते तिथि - करण-मुहूर्त - योगे महता प्रमोदेन, दिव्यया विभूत्या, परिकरितो राजनागरकैः, दिव्यां शिविकामारूढः, वाद्यमानैः मङ्गलतूर्यसंघातैः प्रशस्यमानो विवुधलोकेन, सदुःखमालोक्यमानः पुरसुन्दरीभिः ददद् यथासमीहितमर्थिजनेभ्यो दानं निर्गतो नगरात् शिखिकुमार: । गतो यत्र भगवान् विजयसिंहाचार्य
परिग्रह - इनसे विरक्त होना, रात्रि-भोजन का त्याग तथा राग-द्वेषादि का निग्रह करना - ये पुण्य के कारण : हैं और पाप के कारण इनसे विपरीत हैं ।" इसे सुनकर ब्रह्मदत्त के साथ पिंगक ने श्रावक धर्म धारण कर लिया । ब्रह्मदत्त ने कहा "भगवन् ! यह शिखिकुमार मेरा पुत्र है और इसने महापुरुषों के योग्य कार्य का निश्चय किया है । इस समय मैंने इसके निश्चय की अनुमोदना की है। तो इसका यह कार्य उचित है अथवा अनुचित ?” भगवान् ने कहा - "रत्नाकर में उत्पन्न रत्न का रोकना अनुचित नहीं है ।" तब हर्ष से विकसित अंगों वाले ब्रह्मदत्त ने 'यह मेरे भी मनोरथ के मार्ग को करे - ऐसा विचार कर कहा - "पुत्र ! मैंने तुम्हें आज्ञा दे दी है, तप और संयम का उद्योग करो ।" तब हर्षपूर्वक प्रणाम कर शिखिकुमार ने कहा - 'पिता जी ! मैं अनुगृहीत हूँ ।" तब गुरु की वन्दना कर दोनों नगर में प्रविष्ट हुए । ब्रह्मदत्त ने भी घोषणा कराकर महादान दिया, जिनायतनादि में अष्टाह्निक पूजा करायी । तब उत्तम तिथि, करण और मुहूर्त के योग में बड़े आनन्द से दिव्य विभूति के साथ शिखिकुमार नगर से निकला । उसे राज्य के नागरिक घेरे हुए थे। वह दिव्य पालकी में सवार था। मंगल बाजों का समूह. बजाया जा रहा था । विद्वान् लोग उसकी प्रशंसा कर रहे थे। नगर की स्त्रियाँ उसे दुःखपूर्वक देख रही थीं जोर वह याचकों को उनकी इच्छानुसार दान दे रहा था । शिखिकुमार वहाँ गया जहां भगवान् विजयसिंह आचार्य
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