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अन्ने वि सई महियल निसोयणुप्पन्नकिणियपोंगिल्ला । मलिणजर कपडो च्छ्इयविग्गहा कह वि हिडंति ॥ ३१६ ॥ एक्के प्रति मणोरहाइ जं मंगिराण पणतीणं । अन्ने पुर्ण परघराहणेण कुच्छि पि न भरेंति ॥३१७॥ इय पुण्णा पुण्णफलं पच्चक्खं चैव दीसई लोए । तह वि जणो रागंधो धम्मम्मि अणावरं कुणइ ॥ ३१८ ॥ एत्तो य तव्विसेसो लक्खिज्जइ आगमबलेण । अन्नं च
भयवया
good महासोक्खा चक्की देवा य सिद्धिगामी य । पावेण कुमाणुस - तिरिय-नारया होंति जीवा उ ॥ ३१६ ॥
पिंगकेण भणियं - भयवं ! एवमेवं; अह किं पुण पुण्णकारणं, पावकारणं वा अणुट्ठाणं ति ? भणियं -सुण, पुण्णकारण ताव सवलपाणिवह मुसावायाऽदत्तादाण मेहुण- परिग्गहाण
अन्येऽपि सदा महितल निषदनोत्पन्नकिणितपरिपक्वा: । मलिनजीर्ण कर्पट (वस्त्र) उच्छदितविग्रहाः कथमपि हिण्डन्ते || ३१६ | एके पूरयन्ति मनोरथादि यद् मार्गयमाणानां प्रणयिनाम् । अन्ये पुनः परगृहहिण्डनेन कुक्षिमपि न भरन्ति ॥३१७॥
इति पुण्यापुण्यफलं प्रत्यक्षमेव दृश्यते लोके । तथाऽपि जनो रागान्धो धर्मे अनादरं करोति ॥ ३१८ ॥
इतश्च तद्विशेषो लक्ष्यते आगमबलेन । अन्यच्च
पुण्येन महासौख्याश्चक्रिणो देवाश्च सिद्धिगामिनश्च । पापेन कुमानुष्य - तिर्यग्-नारका भवन्ति जीवास्तु ॥३१९॥
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पिङ्गकेन भणितम् - भगवन् ! एवमेतत्, अथ किं पुनः पुण्यकारणम्, पापकारणं वा अनुष्ठानमिति । भगवता भणितम् - शृणु, पुण्यकारणं तावत् सकलप्राणिवध मृषावादाऽदत्तादान
दूसरे सदा पृथ्वी पर बैठने से उत्पन्न चट्टों से परिपक्व होकर मैले फटे कपड़ों से शरीर ढककर किसी प्रकार भ्रमण करते हैं । कुछ लोग याचना करने वाले याचकों के मनोरथ को पूरा करते हैं । दूसरे – दूसरे के घर घूमते हुए भी पेट नहीं भर पाते हैं । इस प्रकार पुण्य और पाप का फल लोक में प्रत्यक्ष दिखाई देता है तो भी राग अन्धा हुआ व्यक्ति धर्म में आदर नहीं करता है ।। ३१६-३१८ ।।
आगम के बल से पुण्य और पाप का भेद लक्षित होता है और भी -
पुण्य से जीव महान् सुख वाले चक्रवर्ती, देव और मोक्ष प्राप्त करने वाले होते हैं और पाप से जीव कुमनुष्य, तियंच और नारकी होते हैं ।" ।। ३१६ ।।
पिंगक ने कहा--" भगवन् ! यह ठीक है, पुण्य और पाप के भगवान् ने कहा - "सुनो, समस्त प्राणियों का वध, झूठ बोलना, बिना
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कारणभूत कार्य क्या-क्या हैं ?" दी हुई वस्तु को लेना, मैथुन और
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