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________________ "तामो भयो] २॥ एवमेयं ति । अह कहं पुण पुण्ण-पावाणं विसेसो लक्खिज्जइ ? भयवया भणियं-सण, पच्चक्ख चेव अविरयडज्झंतागुरु'विसंखलुच्छलियधूमपडिहत्य । एक्के वसंति भवण निबद्धमणिनिम्मलुल्लोए ॥३११॥ अन्ने बि रइयफुफुमविणितधूमोलिपूरिउच्छंगे। जुण्णनिहेलणविवरंतरालपरिसंठियभुयंगे ॥३१२॥ एक्के धवलहरोवरि मियंककरदंतुरे सह पियाहि । लीलाए गमिति निसि पेसलरयचाडुयम्मेहिं ॥३१३॥ अन्ने वि सिसिरमारुयसोयपवेविरसमुद्धसियदेहा । कहकह वि पियारहिया वाएंता दंतवीणाओ॥३१४॥ एरे कंचणपडिबद्धथोरमुत्ताहलुब्भडाहरणा । विलसंति वहलकुंकुमभसलियवच्छत्थलाभोया ॥३१॥ भगवन् ! एवमेतद् इति । अथ कथं पुनः पुण्य-पापयोविशेषो लक्ष्यते ? भगवता भणितम्-शृण, प्रत्यक्षमेव अविरतदह्यमानागुरुविशृङ्खलोच्छलितधूमप्रतिहस्ते (प्रतिपूर्णे)। एके वसन्ति भवने निबद्धमणिनिर्मलोल्लोचे ॥३११॥ अन्येऽपि रचितफुम्फुमाविनिर्यधूमावलिपूरितोत्सङ्गे ।। जीर्णनिलयनविवरान्तरालपरिसंस्थितभुजङ्ग ॥३१२।। एके धवलगृहोपरि मृगाङ्ककरदन्तुरे सह प्रियाभिः ।। लीलया गमयन्ति निशां पेशलरतचाटुकर्मभिः ॥३१३॥ अन्येऽपि शिशिरमारुतशीतप्रवेपमानसमुधुपितदेहः । कथंकथमपि प्रियारहिता वादयन्तो दन्तवीणाः ॥३१४॥ एके काञ्चनप्रतिबद्धस्थूलमुक्ताफलोद्भटाभरणः । विलसन्ति वहलकुङ कुमभ्रमरितवक्षस्थलाभोगाः ।।३१५॥ परिणामों को प्राप्त कर कहा- "भगवन् ! ठीक है । (कृपया यह बतलाइए) पुण्य-पाप में भेद किस प्रकार लक्षित होता है ?" भगवान् ने कहा-"सुनो प्रत्यक्ष ही है कुछ लोग निरन्तर जलते हुए अगुरु के उठते हुए शृंखलाविहीन धुएं से भरे हुए निर्मल मणियों से निर्मित ऊँचे-ऊँचे भवनों में रहते हैं। दूसरे फुफकार करने से निकले हुए धुएं के समूह से जिसका मध्य भाग पूर्ण है, ऐसे तथा खेतों में स्थित सांपों से युक्त टूटे-फूटे आवासों में रहते हैं। कुछ चन्द्रमा की किरणों से धवलगृह में प्रियाओं के साथ चाटुकारी के कार्य में रत रहते हुए लीलापूर्वक रात्रि व्यतीत करते हैं। दूसरे शिशिरकालीन शीतल वायु से काँपते हुए, जिनके शरीर में रोमांच हो आया है तथा जो दाँत रूपी वीणा को बजा रहे हैं, इस प्रकार प्रिया रहित जैसे-तैसे रात बिताते हैं। कुछ स्वर्ण और बड़े-बड़े मोतियों से निर्मित आभूषणों से शोभायमान होते है चोर उनके वक्षःस्थल अत्यधिक केसर से घिरे रहते हैं । ॥३११-३१५॥ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001881
Book TitleSamraicch Kaha Part 1
Original Sutra AuthorHaribhadrasuri
AuthorRameshchandra Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1993
Total Pages516
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Story, & literature
File Size13 MB
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