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________________ २१२ [समराहचकहा समणपरिणामगामी वि अवियट्टमभिन्नायारोग्गसुहसरूवा भवंति, एवमेव समणाउसो! आवट्टखेत्तवासी इमे पाणिणो वठूण वि य णं भावरोग्ग-पुरिसं तेसु तेसु कम्म-संजोगाइदुक्खगहियपुरिसाणुकूलेसु समायारेसु अवट्टमाणं तदुक्खनिग्याणि च किरियमणुसासयंतं अत्थेगे (जाव-) अवियट्टमभिन्नायारोग्गसुहसरूवा भवंति, न पुण अन्नहत्ति"। अओ न दुक्खसेवणं साहुकिरिया, अवि य सुहं चेव । भणियं च - तिणसंथारनिवन्नो वि मुणिवसे भट्टराग-मय-मोहो। जं पावइ मुत्तिसुहं कत्तो तं चक्कवट्टी वि ॥३१०॥ अओ सुहसेवणाओ चेव सुहपयरिसोऽत्ति सव्वं चेवोववन्नं ति । एत्थंतरम्मि आणंदवाहजलभरियलोयणेणं निव्वडियहिययसब्भावं पवट्टमाणसम्मत्तपरिणामेण भणियं बंभयत्तेण-भयवं ! एवमेयं, न अन्नह त्ति । भाविओ तेण जिणदेसिओ धम्मो, पवन्नं सम्मत्तं, चितियं च विगयसम्मोहं'अहो ? मे सुयस्स सोहणो ववसाओ' त्ति। पिंगकेण वि य पवन्नसुहपरिणामेणं चेव भणियं-भयवं ! नोऽपि अविसंवादितमभिज्ञाताऽऽरोग्यसुखस्वरूपा भवन्ति, एवमेव श्रमणायुष्मन् ! आवर्तक्षेत्रवासिन इमे प्राणिनः दृष्ट्वाऽपि च तं भावाऽऽरोग्यपुरुषं तेषु तेषु कर्मसंयोगादिदुःखगृहीतपुरुषानुकूलेषु समाचारेषु अवर्तमानं तद्दुःखनिर्धातिनों च क्रियामनुशासयन्तं सन्त्येके (यावत्-) अविसंवादितमभिज्ञाताऽरोग्यसुखस्वरूपा भवन्ति, न पुनरन्यथा" इति । अतोन दुःखसेवनं साधुक्रिया, अपि च सुखमेव । भणितं च तृणसंस्तारनिपन्नोऽपि मुनिवरो भ्रष्टराग-मद-मोहः । यत् प्राप्नोति मुक्तिसुखं कुतस्तत् चक्रवर्त्यपि ॥३१०॥ अतःसुखसेवनादेव सुखप्रकर्ष इति सर्वमेवोपपन्नमिति । अत्रान्तरे आनन्दवाष्पजलभतलोचने निर्वर्तितहृदयसद्भावं प्रवर्तमानसम्यक्त्वपरिणामेन भणितं ब्रह्मदत्तेन-भगवन् ! एवमेतत्, न अन्यथेति। भावितस्तेन जिनदेशितो धर्मः, प्रपन्नं सम्यक्त्वम्, चिन्तितं च विगतसम्मोहम्-'अहो! मम सुतस्य, शोभनो व्यवसायः' इति । पिङ्गकेनापि च प्रपन्नशुभपरिणामेन एव भणितम्बन जाता है। श्रमण परिणामगामी ही अविसंवादी होते हैं अतः वे ही आरोग्य सुख स्वरूप के जानकार होते हैं। इसी प्रकार हे श्रमण आयुष्मन् ! संसारक्षेत्र में रहने वाले ये प्राणी उन-उन कर्म संयोगादि के दुःखों से गृहीत पुरुषों के अनुकूल आचारों में न रहने वाले उसके दुःखों को नाश करने वाली क्रिया का उपदेश देने वाले भावारोग्य परुष को देखकर भी कुछ लोग अविसंवादी होकर आरोग्य सुख स्वरूप के जानकार हो जाते हैं, अन्य किसी प्रकार से नहीं। अतः दुःख का सेवन करना साधु की क्रिया नहीं, अपितु साधु की क्रिया सुख रूप है । कहा भी है तण के बिस्तर पर बैठे हुए भी राग, मद और मोह को छोड़ने वाले मुनिवर जो मुक्ति का सुख प्राप्त करते हैं, वह चक्रवर्तियों के भी कहाँ (प्राप्त) है ? ॥१३०।। ___ अतः सुख के सेवन करने से ही सुख होता है-यह सब ठीक है। इसी बीच आनन्द के कारण जिनके मैत्रों में आंसू भर आये हैं, हृदय का सद्भाव जिनका प्रकट हो गया है, सम्यक्त्व परिणाम रूप जो प्रवृत्त हो रहे हैं ऐसे ब्रह्मदत्त ने कहा-"भगवन् ! ऐसा ही है, अन्यथा नहीं है। उसने जिनप्रणीत धर्म की भावना की, सम्यक्त्व प्राप्त किया और मोहरहित होकर विचार किया-अरे ! मेरे पुत्र का निश्चय ठीक है। पिंगक ने भी शुभ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001881
Book TitleSamraicch Kaha Part 1
Original Sutra AuthorHaribhadrasuri
AuthorRameshchandra Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1993
Total Pages516
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Story, & literature
File Size13 MB
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