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________________ समो भयो ] २११ सुक्खं तन्निवित्ती सुहं, जरा दुक्खं तन्निवित्ती सुहं, इच्छा दुक्खं तन्निवित्ती सुहं, पियं दुक्खं तन्निवित्ती सुहं, संकिलेसे दुक्खं तन्निवित्ती सुहं मरणं दुक्खं तन्निवित्ती सुहं, अणाइकम्मसंजोगओ य णं इमे पाणिण अणभिन्ना य सुहसरूवस्स त्ति वेमि । एवं आजाइ- जरा इच्छा - पिय-संकिलेस मरणेसु विविभासा से जहा नाम केइ पुरिसा आजाइरोगखे तुप्पन्ना आजाइरोगगहिया अदिट्ठारोगपुरसाइया आमरणं तभावा अणभिन्ना आरोग्गसुहसरूवस्स, एवं चेव समणाउसो ! अगाइअपज्जयसातवासी इमे पाणिणो ति । जेण दट्टूण वि य णं जहा ते अरोगिपुरिसं तेसु तेसु रोगिपुरिसाणुकूलेस समाधारेसु अवट्टमाणं सव्वरोगनिग्धार्याणि किरियमणुसासयंतं अत्थेगे उपस्संति', अत्थेगे उवहसंति, अत्थेगे अवहीरंति, अत्थेगे सुगंति, अत्येगे न परिणामेंति, अत्थेगे परिणामेंति अत्थेगे नाणुचिट्ठति, अत्थेगे अणुचिट्ठति, अत्थेगे सज्झं विराहेंति; अत्येगे किच्छसज्झं विराहेंति ; अत्थे न विराहेंति अविराहणाए य णं अस्थि केइ सव्वदुक्ख विमोक्खं करेंति, करेत्ता तब्भावं विउति, तओ अइक संततग्भावे खलु अयं पुरिसेऽवियट अभिन्नायारोग सुहसरूवे भवइ, अत्र प्राणिनः कर्मसंयोगे दुःखं तन्निवृत्तिः सुखम्, जरा दुःखं तन्निवृत्तिः सुखम्, इच्छा दुःखं तन्निवृत्तिः सुखम् प्रियं दुःखं तन्निवृत्तिः सुखम्, संक्लेशो दुःखं तन्निवृत्तिः सुखम् मरणं दुःखं तन्निवृत्तिः सुखम्, अनादि कर्मसंयोगतश्च इमे प्राणिनोऽनभिज्ञाश्च सुखस्वरूपस्येति ब्रवीमि । एवम् आजातिजरा इच्छा-प्रिय-संक्लेश- मरणेषु अपि विभाषा । तद् यथानाम - केचित् पुरुषा आजातिरोगक्षेत्रोत्पन्ना आजाति रोगगृहीता अदृष्टाऽरोगपुरुषादिका आमरणं तद्भावाद् अनभिज्ञा आरोग्यसुखस्वरूपस्य, एवमेव श्रमणायुष्मन् ! अनाद्यपर्यवसानावर्तक्षेत्रवासिन इमे प्राणिनः इति । दृष्ट्वाऽपि च यथा ते अरोगिपुरुषं तेषु तेषु रोगिपुरुषानुकूलेषु समाचारेषु अवर्तमानं सर्वरोगनिर्घातिनीं क्रियामनुशासयन्तं सन्त्येके ( पुरुषाः ) द्विषन्ति सन्त्येके उपहसन्ति, सन्त्येके अवधीरयन्ति, सन्त्येके श्रृण्वन्ति, सन्त्येके न परिणमयन्ति, सन्त्येके परिणमयन्ति सन्त्येके नानुतिष्ठन्ति सन्त्ये केनुतिष्ठन्ति सन्त्ये साध्यं विराधयन्ति, सन्त्येके कृच्छ्रसाध्यं विराधयन्ति, सन्त्येके न विराधयन्ति, अविराधना च सन्ति केचित् सर्वदुःखविमोक्षं कुर्वन्ति कृत्वा तद्भावं विकुट्टयन्ति, ततोऽतिक्रान्तवृद्भावे खलु अयं पुरुषोऽवि संवादितम् - अभिज्ञाताऽऽरोग्यसुखस्वरूप इति भवति, श्रमणपरिणामगामिकारा सुख है, इच्छा दुःख है, उसकी निवृत्ति सुख है, प्रिय दुःख है उससे निवृत्ति सुख है, संक्लेश दुःख है उससे निवृत्ति सुख है, मरण दुःख है उससे निवृत्ति सुख है । अनादिकालीन कर्मों के संयोग से अनभिज्ञ ये प्राणी सुख के स्वरूप से अनभिज्ञ हैं—ऐसा मैं कहता हूँ । जन्म से लेकर जरा, इच्छा, प्रिय, संक्लेश तथा मरण की भी परिभाषा ठीक नहीं है । जैसे कुछ पुरुष जन्म से ही रोगक्षेत्र में उत्पन्न हैं, जन्म से उन्हें रोग घेरे हुए है, उन्होंने 'अरोगी पुरुष आदि नहीं देखे हैं, मरणपर्यन्त रोगी होने के कारण वे आरोग्य रूपी सुख के स्वरूप से अनभिज्ञ हैं, इसी प्रकार आयुष्मन् श्रमण ! अनादि अनन्त चक्रवाले क्षेत्र के ये प्राणी हैं । वे अरोगी पुरुष को देखकर भी उनउन रोगी पुरुषों के आचरणों को न करते हुए समस्त रोग का नाश करने वाली क्रियाओं का उपदेश देते हैं । इन्हें देखकर कुछ लोग द्वेष करते हैं, कुछ उपहास करते हैं, कुछ तिरस्कार करते हैं, कुछ सुनते हैं, कुछ परिणमन नहीं करते हैं, कुछ परिणमन करते हैं, कुछ लोग अनुष्ठान नहीं करते हैं, कुछ अनुष्ठान करते हैं, कुछ लोग साध्य की विराधना ( खण्डन करना, तोड़ना) करते हैं, कुछ कठिन साध्य की विराधना करते हैं, कुछ विराधना नहीं करते हैं, कुछ विराधना न करते हुए समस्त दुःखों से मुक्त होते हैं। उसके भाव ( आत्मभाव ) को प्रस्फुटित करते हैं, तदनन्त तद्भाव के अतिक्रान्त होने से यह जीव अविसंवादी हो जाता है अर्थात् आरोग्य सुख के स्वरूप से वह प्रिंश ९. पुरिस पठा Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001881
Book TitleSamraicch Kaha Part 1
Original Sutra AuthorHaribhadrasuri
AuthorRameshchandra Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1993
Total Pages516
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Story, & literature
File Size13 MB
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