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________________ २१० [समराइच्चकहा तस्सेव पगरिसो लोए दिट्ठो न उण विवज्जए ति, ता विरम एयाओ ववसायाओ' त्ति, एयं पि मद्धजणमोहणं । जओ न निक्खमणसाहियफलस्स एस अनिवारियपसरो ति । निक्खमणस्स हि फलं जम्हा जम्माभावजं निव्वाणं, निव्वाणपत्तस्स य इमस्स जीवस्स न जम्मो, न जरा, न वाही, न मरणं, न इविओगो, न अणिट्ठसंपओगो, न बुभुक्खा, न पिवासा, न रागो, न दोसो, न कोहो, न माणो, न माया, न लोहो, न भयं, न य अन्नो वि कोइ उवद्दवो त्ति, किं तु सव्वनू सव्वदरिसी निरुवमसुहसंपन्नो तिलोयचूडामणीभूओ मोक्खपए चिठ्ठइ । अओ कहं तत्थ मच्चुणो पसरो? न य अपयट्टकज्जारंभो पुरिसो फलं साहेइ। कहं च पइसमयमेव मरणाभिभूयाणं कापुरिसाणं तस्स पडियारमचितयंताणं अवत्थाणं पसंसिज्जइ ! अओ 'न य पज्जते मरियध्वं ति मसाणे चेवावत्थाणमववन्नं ति पहसणप्पायं। न य सयलसंगचाईण वीयरागवयणेण कम्मक्खउज्जयाणं परिणयचरित्तभावणाणं समणाणं जं सुहं, तं चक्कट्टिणो वि न जुज्जइ ति। भणियं च भयवया-"इह खलु संसारे न सम्वहा सुहमत्थि, अणभिन्नाय सुहसरूवा य एत्थ पाणिणो, कम्मसंजोए दुक्ख तन्तिवित्ती सुहं, आजाई सेवनादेव, यतो यच्चैव अभ्यस्यते तस्यैव प्रकर्षों लोके दुष्टो न पूनविपयेये इति, ततो विरम एतस्माद व्यवसायाद' इति, एतदपि मुग्धजनशोजनम् । यतो न निष्क्रमणसाधितफलस्य एष अनिवारितसर इति । निष्क्रमणस्य हि फलं यस्माद् जन्माभावजं निर्वाणम्, निर्वाणप्राप्तस्य चास्य जीवस्य न जन्म, न जरा, न व्याधिः, न मरणम् ; न इष्टवियोगः, न अनिष्टसम्प्रयोगः, न बुभक्षा, न पिपासा, न रागः, न द्वेषः, न क्रोधः, न मानः, न माया, न लोभः, न भयम्, न च अन्योऽपि कोऽपि उपद्रव इति, किं तु सर्वज्ञो सर्वदर्शी निरुपम सुखसम्पन्नस्त्रिलोकचडामणीभूतो मोक्षपदे तिष्ठति । अतः कथं तत्र मृत्योः प्रसरः ? न चाप्रवृत्तकार्यारम्भः पुरुषः फलं साधयति । कथं च प्रतिसमयमेव मरणाभिभूतानां कापुरुषाणां तस्य प्रतीकारमचिन्तयतामवस्थानं प्रशस्यते? अतो 'न च पर्यन्ते मर्तव्यमिति श्मशाने एवावस्थानमुपपन्नम्' इति प्रहसनप्रायम् । न च सकलसङ्गत्यागिनां वीतरामवचनेन कर्मक्षयोद्यतानां परिणतचारित्रभावनानां श्रमणानां यत् सुखम् , तत् चक्रवर्तिनोऽपि न यज्यते इति । भणितं च भगवता-"इह खल संसारे न सर्वथा सुखमस्ति, अनभिज्ञातसुखस्वरूपाश्च परलोक में सुख हो सकता है। क्योंकि जिसका अभ्यास किया जाता है, संसार में उसी का प्रकर्ष देखा जाता है, विपरीत का नहीं, तो इस निश्चय से विरत होओ, यह भी मूढ़ जनों के लिए शोभा देता है; क्योंकि निष्क्रमण की माधना का फल मत्यू के प्रसार को रोकना नहीं है। निष्क्रमण का फल तो जन्म वे. अभाव से उत्पन्न निर्वाण है। निर्वाण को प्राप्त हुए इस जीव का जन्म, जरा, व्याधि, मरण, इष्टवियोग, अनिष्ट संयोग, भूख, प्यास, राम, द्वष, क्रोध, मान, माया, लोभ, भय तथा अन्य भी किसी प्रकार का उपद्रव नहीं है किन्तु सर्वज्ञ, सर्वदर्शी, अनुपमेय सुख से सम्पन्न होकर तीनों लोकों के चूडामणिस्वरूप मोक्षपद पर स्थित होता है । अत: वहाँ मृत्यु का विस्तार कहाँ है ? कार्य को आरम्भ किये बिना मनुष्य फल की सिद्धि नहीं करता है। प्रति समय मरण से अभिभूत कायर पुरुषों का उसके प्रतिकार की चिन्ता में लगे रहना कैसे प्रशंसनीय हो सकता है ? अतः मृत्यु न हो तो श्मशान में रहता भी ठीक है, यह हास्य मात्र ही है अर्थात् इसमें कोई वास्तविकता नहीं है। समस्त आसक्तियों का त्याग करने वाले वीतराग के वचन से कर्म का क्षय करने के लिए उद्यत चारित्रभाव को क्रियान्वित करने वाले श्रमणों को जो सुख है वह चक्रवर्तियों को भी नहीं है । भगवान् ने कहा है - "इस संसार में सर्वथा सुख नहीं है। यहाँ पर प्राणी सुख के स्वरूप से अनभिज्ञ है । कर्म का संयोग दुःख है, उससे छुटकारा सुख है, बुढ़ापा दुःख है, उससे छुट १. अविन्नाय"-ख । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001881
Book TitleSamraicch Kaha Part 1
Original Sutra AuthorHaribhadrasuri
AuthorRameshchandra Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1993
Total Pages516
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Story, & literature
File Size13 MB
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