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सइओ भयो ]
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जओ परलोओ चेव नत्थि, न य कोइ तओ आगंतणमप्पाणयं दंसेइ, एवमवि य परियपणे अइप्पसंगो' त्ति, एवं पि हु असारं । विचित्तकिरियाणुहव-जाइस्सरणोवलंभ तक्क 'हियपच्चया विज्जमाणुपायासिद्धो कहं परलोओ चेव नत्थि ? अप्पाणयादंसणे य भणियं कारणं । तह जं च भणियं - 'दारुणो विसय विवागो त्ति, एवं पि न जुत्तिसंगयं; जओ आहारस्स विवागो दारुणो चेव, एवं च भोयणमवि परिचइयत्वं न य 'हरिणा विज्जति त्ति जवा चेव न वप्पति'त्ति, न य उवापन्नुणो पुरिसस्स दारुणत्तं पि संभवइत्ति एयं पि अणालोइयवयणं । जओ सव्वं चैव संसारियं वत्युं विवागदारुणं ति । तं च कमेण वज्जिज्जए, अहिप्पेओ य पव्वज्जाफलं संसारक्खओ चेव सि । न य बन्धुपरिवज्जणेण दिसयपरिभोगो' तीरइ ति । अओ च्चिय न तेसु दारुणत्तं पि संभवइति । तह जं च भणियं - 'पहवइ सया अणिवारियपसरो मच्चु त्ति, एवं पि बालवयणमेत्तं ति; जेण निक्तस्स विएस अनिवारियपसरो चेव; न य पज्जंते मरियव्वं ति मसाणे चेवावत्थाणमुववन्नं, नय संतेवि परलोए दुक्ख सेवणाओ सुहं, अवि य सुहसेवणाओ चेव, जओ जं चेव अब्भसिज्जह
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नङ्ग इति एतदपि न शोभनम् यतः परलोक एव नास्ति, न च कश्चित् तत आगत्य आत्मानं दर्शयति एवमपि च परिकल्पने अतिप्रसङ्गः' इति एतदपि खलु असारम् । विचित्र क्रियानुभवजातिस्मरणोपलम्भतकं हितप्रत्ययाद् विद्यमानोत्पादादिसिद्धः कथं परलोक एव नास्ति ? आत्मादर्शने च भणितं कारणम् । तथा यच्च भणितम् - दारुणो विषयपाक इति एतदपि न युक्तिसङ्गतम् ; यत आहारस्य विपाको दारुण एव एवं च भोजनमपि परित्यक्तव्यम्; न च 'हरिणा विद्यन्ते' इति वा एव नोप्यन्ते इति न च उपायज्ञस्य पुरुषस्य दारुणत्वमपि सम्भवति' इति एतदपि अनालोचितवचनम् । यतः सर्वमेव सांसारिकं वस्तु विपाकदारुणमिति । तच्च क्रमेण वर्ज्यते, अभिप्रेतश्च प्रव्रज्या फलं संसारक्षय एवेति । न च बन्धुपरिवर्जनेन विषयपरिभोगः शक्यते इति । अत एव न तेषु दारुणत्वमपि सम्भवतीति । तथा यच्च भणितम् - प्रभवति सदा अनिवारितप्रसरो मृत्युरिति, एतदपि बालवचनमात्रमिति येन निष्क्रान्तस्याऽपि एष अनिवारितप्रसरः; एव न च पर्यन्ते मर्तव्यमिति श्मशाने एव अवस्थानमुपपन्नम् न च सत्यपि परलोक दुःखसेवनात् सुखम् अपि च सुख
'काम परलोक का विरोधी है, यह भी ठीक नहीं है; क्योंकि परलोक ही नहीं है; क्योंकि वहाँ से कोई आकर अपने बापको नहीं दिखलाता है, इस प्रकार की कल्पना में अतिप्रसंग दोष है - इसमें कुछ भी सार नहीं है । नाना प्रकार की क्रियाओं का अनुभव, जातिस्मरण होना, तर्क के द्वारा हित का निश्चय करना, इससे जिसकी उत्पत्ति आदि सिद्ध है, ऐसा परलोक कैसे नहीं है ? आत्मा दिखाई नहीं देती है, इसका कारण कह ही चुके हैं। जो आपने कहा कि विषयों का फल दारुण है, यह भी युक्तिसंगत नहीं है, क्योंकि आहार का विपाक भी दारुण होता है । अतः भोजन भी त्याग देना चाहिए । हरिणों के होने के कारण कोई जो को नहीं बोये, ऐसा नहीं है। उपाय को जानने वाले पुरुष के लिए दारुणपना भी सम्भव नहीं है - यह भी बिना सोचे-समझे कह गये; क्योंकि सारी सांसारिक वस्तुओं का फल दारुण होता है। उसका क्रमशः त्याग किया जाता है और अभिप्रेत प्रव्रज्या का फल संसार का
नाश ही है । बन्धु-बाधवों के त्यागने से विषयों का भोग सम्भव नहीं है, अत जो आपने कहा कि जिसका विस्तार रोका नहीं जा सकता, ऐसी मृत्यु सदैव है; क्योंकि घर छोड़ देने पर भी मृत्यु अनिवार्य रूप से आती ही है, यदि ठीक है, परन्तु परलोक होने पर भी दुःख सेवन करने से सुख नहीं हो सकता
है
१, बलं मंतक्कक च, २. बान्धवपरिख, ३. विसयापरि कन्ग ।
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त्याग में दारुणता सम्भव नहीं है तथा मर्थ है, यह भी बच्चों के कथन जैसा मृत्यु न हो तो श्मशान में भी रहना अपितु सुख का सेवन करने से ही
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