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________________ २०५ [समराइच्चकहा ता अस्थि जीवो ति । एवं च होतए जं तुमए भणियमासि, जहा-'दुल्लहं खलु एवं माणुसत्तणं ति, एयमसंबद्धं चेव ; जओ न तं सुकयदुक्कयाणुभावेण लगभइ, अवि य भूयपरिणईओ त्ति, अओ किमियमाउलत्तणं' त्ति, एयमजुत्तं । न हि परलोगगामुए जीवे विज्जमाणे चेव एवं समत्थधम्मारम्भसाहगं माणुसत्तणं भूयपरिणइमेत्तलम्भं ति । तहा जं भणियं-'अणिच्चा पियजणसमागम त्ति, एयं पि अकारणं, जो न ते निक्खंताणं पि अन्नहा होंति,' एवं पि न सोहणं ; जओ निक्खंताणमिह मुणीणं पिया-ऽपियवियप्पो चेव नत्थि ति । तहा जं च भणियं-'चंचलाओ रिद्धीओ ति, एयस्स वि न निक्खमणं चेव पडिवक्खो, अवि य उवाएण परिक्खणं' ति, एयं पि बालवयणसरिसं चेव । जओ न धम्ममेव मोतूणं अन्नो परिक्खणोवाओ, असाराओ य इमाओ दव्वरिद्धीओ अणेयसत्तावयारिणीओ य । तहा जं च भणियं-'कुसुमसारं जोव्वणं ति, एत्थ वि य रसायणं जत्तं, न पुणो निक्खमणं' ति, एवं पि न संगयं । जओ न निक्खमणधम्मसाहरणरसायणाओ परमत्थचिताए अन्नं रसायणं ति । तहा जं च भणियं-'परलोयपच्चत्थिओ अणंगो त्ति, एयं पि न सोहणं; ततोऽस्ति जीव इति । एवं च भवति यत् त्वया भणितमासीत्, यथा-'दुर्लभं खलु एतद् मनुष्यत्वम्-इति, एतद् असम्बद्धमेव; यतो न तत् सुकृतदुष्कृताऽनुभावेन लभ्यते, अपि च भूतपरिपतित इति, अतः किमिदमाकुलत्वम्' इति , एतद् अयुक्तम् । न हि परलोकगामुके जीवे विद्यमाने, एव एतत् समस्तधर्मारम्भसाधकं मनुष्यत्वं भूतपरिणतिमात्रलभ्यमिति। तथा यद् भणितम्'मनित्याः प्रियजनसमागमा इति, एतदपि अकारणम् , यतो न ते निष्क्रान्तानामपि अन्यथा भवन्ति एतदपि न शोभनम् ; यतो निष्क्रान्तानामिह मुनीनां प्रियाऽप्रियविकल्प एव नास्ति इति । तथा यच्च भणितम्--'चञ्चला ऋद्धय इति, एतस्यापि न निष्क्रमणमेव प्रतिपक्षः, अपि च उपायेन परिरक्षणम्' इति, एतदपि बालवचनसदृशमेव । यतो न धर्ममेव मुक्त्वा अन्यः परिरक्षणोपायः, असाराश्च इमा द्रव्यर्द्धयोऽनेकसत्त्वापकारिण्यश्च । तथा यच्च भणितम्-'कुसुमसारं यौवन मिति, अत्रापि च रसायनं युक्तम्, न पुननिष्क्रमणम्' इति, एतदपि न सङ्गतम् । यतो न निष्क्रमणधर्मसाधनरसायनात् परमार्थचिन्तायामन्यद् रसायनमिति । तथा यच्च भणितम्-'परलोकप्रत्यर्थिको अतः जीव है, ऐसा सिद्ध होने पर जो तुमने कहा था कि 'यह मनुष्यभव दुर्लभ है, यह असम्बद्ध है; क्योंकि यह पाप-पुण्य के फलस्वरूप प्राप्त नहीं होता है अपितु यह भूतों की परिणति है, अत: इससे क्या घबड़ाना'—यह अयुक्त सिद्ध होता है । परलोक जाने वाले जीव के विद्यमान रहने पर समस्त धर्मों के आरम्भ का साधक यह मनुष्यत्व भूतों की परिणति मात्र से प्राप्त नहीं होता है तथा जो आप ने कहा कि 'प्रियजनों का समागम अनित्य है, इसमें कोई कारण नहीं है। क्योंकि घर से निकलने वालों का भी प्रियजनों का समागम नित्य नहीं हो जाता है', यह भी ठीक नहीं है: क्योंकि घर से निकलने वाले मुनियों के प्रिय अथवा अप्रिय विकल्प ही नहीं है तथा जो आपने कहा कि 'ऋद्धिर्या चंचल हैं, इसका विरोधी घर से बाहर निकलना नहीं है । अपितु ऋद्धियों की उपाय से रक्षा करना ही इसका विरोधी है', यह भी बच्चों के वचनों जैसा है; क्योंकि धर्म को छोड़कर अन्य कोई रक्षा करने का उपाय नहीं है, ये धन और ऋद्धियाँ असार हैं; क्योंकि इससे अनेक प्राणियों का अपकार होता है तथा जो कहा कि 'यौवन फूल के समान निःसार है, यहाँ पर भी यौवन का रस लेना युक्तियुक्त है। प्रव्रज्या नहीं', यह भी ठीक नहीं है; क्योंकि प्रव्रज्या रूपी धर्मरसायन के अतिरिक्त परमार्थ चिन्ता का अन्य कोई रसायन नहीं है ; आपने जो कहा कि Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001881
Book TitleSamraicch Kaha Part 1
Original Sutra AuthorHaribhadrasuri
AuthorRameshchandra Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1993
Total Pages516
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Story, & literature
File Size13 MB
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