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________________ भूमिका ] ३१ जागृत हो गया। उसने माता-पिता से आज्ञा लेकर मुनिदीक्षा ले ली। इधर देवपुर से निर्वासित लक्ष्मी को सुवदन ने ढूढ़ा। वह नन्दिवर्धन नाम के सन्निवेश में दिखाई दी और उसे मिली । तदनन्तर वह उसे लेकर अपने द्वीप को चला गया। कुछ समय बीत गया। ताम्रलिप्ती आये हए धरण ऋषि को लक्ष्मी ने देख लिया और पहिचान लिया। उसने उनके प्रति द्वेष के कारण अपना कण्ठाभरण उनके समीप रख दिया और चिल्लाकर सिपाहियों से धरण ऋषि को पकड़वा दिया । राजा की आज्ञा से उन्हें शूली पर चढ़ाने के लिए ले जाया गया। तप के प्रभाव से शूली पृथ्वी पर आ गयी । समीपवर्ती देवता के कारण शूली से मुनिराज नहीं भेदे जा सके । यह समाचार सुनकर हर्षित हो राजा आया । राजा ने लक्ष्मी को बुलाया, किन्तु वह कहीं भाग गयी । भागते हुए सुवदन को सैनिकों ने पकड़ लिया। सुवदन ने राजा से अभयदान प्राप्त कर सारी कथा यथार्थ रूप से सुनायी। लक्ष्मी भय से अभिभूत हो ताम्रलिप्ती से प्रहरमात्र में ही भागकर कुशस्थल सन्निवेश में आ गयी। उसके वस्त्राभूषण चोरों ने हरण कर लिये । उसी रात्रि राजमहिषी ने पुरोहित से समस्त विघ्नों को नष्ट करने वाला यज्ञ प्रारम्भ कराया। यज्ञीय अग्नि देखकर वहाँ सुवदन के होने का अनुमान कर लक्ष्मी आयी। पुरोहित राक्षसी समझकर राजा के पास ले गये । राजा ने भी राक्षसी समझकर उसे तरह-तरह से अपमानित कर रोषपूर्वक बाहर निकाल दिया । अनन्तर ग्रामादि में प्रवेश न पाने के कारण जंगल में भ्रमण करती हुई पूर्वकृत कर्मों के फलस्वरूप उसे भयानक रूप वाले सिंह ने मार डाला। वह धूमप्रभा नामक नगर में उत्पन्न हुई । उसकी आयु सत्रह सागरोपम थी। ___ भगवान् धरण भी संयमपूर्वक विहार करते हुए सल्लेखना स्वीकार कर समाधिमरण को प्राप्त हुए। कालक्रम से मरकर आरण नामक स्वर्ग के चन्द्रकान्त नामक विमान में इक्कीस हजार सागरोपम आयु वाले वैमानिक देव हुए। सातवें भव की कथा जम्बूद्वीप के भारतवर्ष में चम्पा नाम की नगरी है। वहां अमरसेन नाम का राजा था। उसकी समस्त अन्तःपुर में प्रधान जयसुन्दरी नामक पत्नी थी। वह आरण स्वर्ग का वासी देव आयु पूर्ण कर वहाँ से च्युत होकर जयसुन्दरी के गर्भ में आया। पुत्र के रूप में जन्म लेने के बाद उसका नाम 'सेन' रखा गया। एक वर्ष बीत गया। इसी बीच लक्ष्मी का जीव नारकी उस नरक से निकलकर पुनः संसार में घूमकर अमरसेन के भाई हरिषेण युवराज की तारप्रभा नामक स्त्री के गर्भ में पुत्र रूप में आया। उत्पन्न होने के बाद उसका नाम विषण' रखा गया। सेन की विषेणकुमार के प्रति प्रीति थी, किन्तु विषेण की सेन के प्रति प्रीति नहीं थी। एक बार राजा केवल ज्ञान प्राप्त एक साध्वी की वन्दना के लिए गया। दर्शन करके बैठ गया। इसी बीच दो महिलाओं के साथ बन्धुदेव और सागर नाम के दो वणिकपुत्र आये। भगवती को नमस्कार कर सागर ने कहा-मैंने अद्भुत और असम्भाव्य वस्तु देखी है। वह यह कि कुछ समय पहले मेरी प्रिया का हार नष्ट हो गया था। यह भूल गयी। आज मैं भोजन के बाद चित्रशाला में गया तब असमय में ही चित्रशाला के बीच में ही मोर ने लम्बी सांस ली, गर्दन ऊँची की, पंखों को फड़फड़ाया, पूछ फैलायी। अनन्तर उस भाग से उतरकर कुसुम्भी रंग के वस्त्र से युक्त पेटी में उसने हार छोड़ा। वह मोर अपने स्थान पर चला गया और अपने स्वाभाविक रूप में खड़ा हो गया। थोड़े ही समय बाद लोगों से सुना कि भगवती को केवलज्ञान उत्पन्न हुआ है, अत: मैं यहाँ आ गया। भगवती ने कहा-सौम्य ! कर्म की परिणति के लिए क्या अद्भुत और असम्भावव्य है ? सुनो Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001881
Book TitleSamraicch Kaha Part 1
Original Sutra AuthorHaribhadrasuri
AuthorRameshchandra Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1993
Total Pages516
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Story, & literature
File Size13 MB
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