SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 40
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ३५ [समराइच्चकहा ऋजुबालिका नदी पर वह धरण को प्राप्त हुई। जब धरण दन्तपुर की ओर प्रस्थान कर रहा था तब कादम्बरी में भ्रमण करते हुए कालसेन के शबरों ने सार्थवाहपुत्र को लताओं की रस्सी से बांध लिया और उसकी पत्नी के साथ वे चण्डीदेवी के मन्दिर की ओर गये । उस मन्दिर में दुर्गिलक नामक लेखवाहक के बाल खींचकर उसकी बलि दी जा रही थी। धरण ने कहा-इसे छोड़कर मुझे मार दो। धरण की यह बात सुनकर कालसेन नामक भीलों का स्वामी आश्चर्यचकित रह गया । उसे उस वणिकपुत्र की याद आयी, जिसने एक बार उसके प्राण बचाये थे । कालसेन ने धरण को उस वणिकपुत्र के रूप में पहिचान कर उसका लटा हुआ सारा धन और बन्दीजन वापिस कर दिये। धरण अपने नगर को वापस आया। आधे माह बाद देवनन्दी भी आ गया । देवनन्दी का माल आधा करोड का और धरण का एक करोड़ का निकला। नग रनिवासियों ने धरण की प्रशंसा की। एक बार धरण पूनः माता-पिता की आज्ञा लेकर व्यापार के निमित्त बहत बड़े व्यापारियों के झण्ड तथा पत्नी के साथ पूर्व समुद्र के किनारे स्थित वैजयन्ती नामक नगरी को गया। माल को बेचा, किन्तु यथेष्ट लाभ नहीं हुआ । अनन्तर वह चीन द्वीप गया। मार्ग में जहाज टूट जाने से वह समुद्र में गिर गया। एक लकड़ी के टुकड़े के सहारे तैरता हुआ वह स्वर्णद्वीप के किनारे आ लगा। वहाँ उसने स्वर्णमयी ईंटें पकायीं और उन्हें धरण नाम से अंकित किया । इधर चीन द्वीप से ही सुवदन सार्थवाह पुत्र के साथ सामान्य मूल्यवाले माल से भरा हुआ दूसरे द्वीप से प्राप्त लक्ष्मी सहित देवपुर की ओर जाने वाला एक जहाज उसी स्थान पर आया। धरण के अनुरोध पर उस जहाज के माल को अलग कर उसमें सारी स्वर्णमयी ईंटें भरी गयीं। माल भरने के उपलक्ष्य में धरण ने सुवदन को एक लाख स्वर्ण देना स्वीकार किया। इसी बीच सुपर्णा नामक स्वर्णद्वीप की वानमन्तरी आयी। उसने कहा कि यहां पुरुष की बलि दिये बिना धन-ग्रहण नहीं किया जाता है. अतः या तो पुरुष-बलि दो या धन छोड़ो । धरण ने लक्ष्मी को लाने के कारण सुवदन का उपकार मान कर अपने आपको बलि के रूप में प्रस्तुत कर दिया। वानमन्तरी ने उसे शूल से वेध दिया । जहाज देवपुर की ओर चला । बाद में हेमकुण्डल विद्याधर की प्रार्थना पर वानमन्तरी ने धरण को छोड़ दिया। धरण को लेकर हेमकूण्डल रत्नद्वीप गया । अनन्तर अपने एक मित्र से मिलकर हेमकुण्डल धरण को देवपुर लाया । धरण कुछ दिन उद्यान में ठहर कर नगर में प्रविष्ट हुआ । वहाँ टोप्पश्रेष्ठी से उसका परिचय हुआ। इधर कुछ दिनों बाद सुवदन और लक्ष्मी भी देवपुर आये। उन दोनों ने धरण को जीवित पाकर आपस में यह विचारविमर्श किया कि धरण को किसी उपाय से आज रात्रि में मार डालेंगे। रात्रि में जब धरण सो रहा था तब लक्ष्मी ने उसके गले में फांसी लगा दी और उसे मरा हुआ समझ समुद्र के किनारे छोड़ दिया । कुछ समय बाद मूच्छित धरण को होश आया। अनन्तर टोप्पश्रेष्ठी की सहायता से धरण को राजा ने सम्पूर्ण धन दिलाया । सुवदन का अपराध को क्षमा कर धरण ने उसे आठ लाख स्वर्णमुद्रा दीं । अनन्तर धरण बड़ी धूमधाम के साथ अपने नगर को आया। नागरिकजन, परिवारजन और राजा ने उसका भलीभाँति स्वागत किया। एक बार धरण मलयसुन्दर नामक उद्यान में गया। नागलता मण्डप में क्रीड़ा के लिए गया हुआ रेविलक नामक कुलपुत्र उसे मिला, जो कि अपनी प्रेमिका की मनौती कर रहा था। धरण को लक्ष्मी की याद आ गयी। अनन्तर परमार्थ का ध्यान कर वह उदासीन हो गया। उसने वहाँ एक स्थान पर शिष्यगणों से परिवृत अर्हद्दत्त नामक आचार्य को देखा । धरण ने उनसे दीक्षा देने की प्रार्थना की, किन्तु उन्होंने कहा कि सबसे पहले अतीचाररहित शुभ गृहस्थमार्ग का ही अभ्यास करना चाहिए। ऐसा न किए हुए व्यक्ति लोलुपी होते हैं । इसके समर्थन में अर्हद्दत्त आचार्य ने अपना चरित सुनाया। इसे सुनकर धरण Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001881
Book TitleSamraicch Kaha Part 1
Original Sutra AuthorHaribhadrasuri
AuthorRameshchandra Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1993
Total Pages516
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Story, & literature
File Size13 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy