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भूमिका ]
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नगर के द्वार पर दोनों रथ मिल गये। रथों की विशालता के कारण दोनों को एक साथ निकलने का स्थान न था अतः दोनों में रथ के प्रथम निकलने के प्रश्न पर विवाद हो गया। नगर के प्रधान पुरुषों के विचार-विमर्श के बाद तय हुआ कि विदेश जाकर जो एक वर्ष मे अधिक धन कमाकर लायेगा, उसी का रथ पहले निकलेगा। दोनों में से प्रत्येक को पांच लाख दीनार प्रमाण का माल दिया गया। अनन्तर एक उत्तरा पथ की ओर गया, दूसरा पूर्व की ओर । बन्धुदत्त और पंचनन्दि ने इन दोनों की पत्नियों को भी सपरिवार यथास्थान भेज दिया ।
निरन्तर गमन करते हुए कुछ दिन बीत गये । उपवास में स्थित धरण ने पास में वर्तमान आयामुखी सन्निवेश में अपने सार्थ को आवासित कर देने के बाद, चोर न होने पर भी जो चोर मानकर पकड़ा गया था, ऐसे चाण्डाल युवक को देखा । उसने व्यापारियों के समूह को देखकर कहा- मैं 'महाशर' का निवासी मौर्य नामक चाण्डाल हूँ। किसी कारणवश कुशस्थल को गया । टगने की बुद्धि रखने वाले चोरों के न दिखाई पड़ने पर बिना दोष भाग्यहीन में पकड़ लिया गया हूँ। अतः मुझे एक लाख दीनार वाली मुक्ताफल की माला लेकर राजा के पास गया और उससे वृत्तान्त सहित उस चाण्डाल को छुड़ाने के लिए उस स्थान पर आया । चाण्डाल छोड़ दिया गया। धरण अचलपुर नगर को आया। उसने माल का विभाग कर उसे बेचा, आठ गुना लाभ प्राप्त हुआ। वहीं पर क्रय-विक्रय के लिए चार माह ठहरा । पुण्योदय से प्रभूत धनोपार्जन किया । उसने धन की गणना करायी। वह एक करोड़ प्रमाण था । अनन्तर माकन्दी में बेचने योग्य माल को लेकर सौदागरों की टोली के साथ अपने देश को आने के लिए प्रवृत्त हुआ। प्रतिदिन प्रयाण करता हुआ वह व्यापारी संघ थोड़े
सिपाहियों द्वारा छुड़ाओ धरण । कहकर दूत
ही दिनों में अत्यन्त भयंकर कादम्बरी नामक अटवी में पहुँचा। वहाँ पर एक रात शवरों और भीलों की सेना सींगों का भयंकर शब्द करती हुई व्यापारियों के समूह पर टूट पड़ी। थोड़ी संख्या होने से वह व्यापारियों का समूह शबरसेना द्वारा जीत लिया गया। साथ चरण के जीत लिये जाने पर अन्य उपाय न देख वह लक्ष्मी को लेकर चुपके से भाग गया । दिशाओं के विषय में मूढ़ हो, पत्नी के भय से जल्दीजल्दी चलता हुआ शिलीन्प्रनिलय नामक पर्वत पर पहुँचा। वहाँ कुछ दिन बड़े कष्ट से बिताकर उत्तर की ओर प्रवृत्त हुए और महासर नाम के नगर को प्राप्त हुए। चूंकि सूर्य अस्त हो गया था अतः नगर के बाहर ही पक्षालय में ठहर गये लक्ष्मी को प्यास लगी धरण नदी से पानी लाया। लक्ष्मी ने पानी पिया धरण सो गया । लक्ष्मी ने सोचा- विधाता अनुकूल है, जो कि यह इस अवस्था को प्राप्त हो गया । इसी बीच सिपाहियों के भय से चण्डरुद्र नामक चोर प्रविष्ट हुआ। वह राजा के घर से रत्नपात्र लेकर निकला था कि उसे सिपाहियों ने देख लिया और उस यक्षालय में घेर लिया। उसके साथ बात कर लक्ष्मी ने उसे अपनी योजना बतलायी कि सवेरा होने पर मैं सिपाहियों से कह दूँगी कि यह (चोर) मेरा पति है तथा यह (धरण) चोर है। चण्डरुद्र ने कहा मैं हाँ का निवासी भार्यासहित है, सभी जानते हैं कि मेरी पत्नी कौन है। उसने यह भी कहा मेरे पास चिन्तामणि रत्न के समान भगवान् स्वन्दरुद्र के द्वारा दी गयी दृष्टि मोहिनी नामक चोर गोली है। उसे जल के साथ नेत्रों में बजने वाले मनुष्य को हजार नेत्र वाला इन्द्र भी नहीं देख सकता है, मर्त्यलोकवासी मनुष्य की तो बात ही क्या है । अनन्तर चण्डरुद्र और लक्ष्मी ने नेत्रों को आँज लिया। दोनों एक स्थान पर खड़े हो गये। प्रातःकाल रत्नपात्र जिसके पास में रखा था, ऐसे धरण को पकड़ लिया गया । राजा ने उसके वध का आदेश दे दिया। मौर्य नामक चाण्डाल, जिसे वध के लिए दिया गया था, ने उसके रूप, रंग वगैरह से आकर्षित हो आग्रहपूर्वक उसे भगा दिया था धरण ऋजुबालिका नदी के तट पर पहुंचा। लक्ष्मी के आभूषण वगैरह को छीनकर चण्डरुद्र ने उसका परित्याग कर दिया था।
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