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समराइच्चकहा
होगी। उसने घटना की जानकारी प्राप्त कर यह भी बतलाया कि चत्रसेन नामक विद्याधर ने अप्रतिहतचक्र नामक विद्या सिद्ध करने का निश्चय किया है। इसमें महाप्रयत्न से सात रात्रि तक हिंसा से रक्षा करनी होती है तथा इसकी क्षेत्रशुद्धि अड़तालीस योजन प्रमाण है, अतः विलासवती मृत्यु को प्राप्त नहीं होगी । बाद में उस विद्याधर की बात यथार्थ सिद्ध हुई। विलासवती मे मेरा मिलन हुआ। अनन्तर तापस वेशधारी वसुभूति भी दिखाई दिया । वसुभूति से वृत्तान्त पूछा। उसने अपना सारा वृत्तान्त कह सुनाया । अनन्तर मुझे विद्या सिद्ध हुई। एक विद्याधर जो विलासवती को हर ले गया था, से मेरा युद्ध हुआ । अनन्तर मुझे विलासवती की प्राप्ति हुई । विद्याधरों ने मुझे राज्याभिषिक्त किया। मैंने ईश्वरचन्द्र को विनयपूर्वक जाकर प्रसन्न किया। कुछ दिनों बाद मुझे पुत्र प्राप्ति हुई। पुत्र का नाम ईशानचन्द्र रखा। विद्याधर वगैरह से पूछकर मैं श्वेतविका गया। माता-पिता से मिलन हुआ। माता-पिता के स्वर्गवास के बाद अपने छोटे भाई कीर्तिनिलय का राज्याभिषेक कर मैं पुनः वैताय पर्वत पर नूपुर चक्रवालपुर में प्रविष्ट हुआ।
इसी बीच बहुत से शिष्यों के साथ चित्र गद नामक विद्याधर श्रमण आये। उन्होंने मेरे पूछने पर मेरे पूर्वजन्म के कृत्यों का वर्णन किया, जिनके फलस्वरूप मुझे इस प्रकार विरह वगैरह के दुःख उठाने पड़े । अनन्तर मैंने श्रमण-दीक्षा ले ली ।
भगवान् सनत्कुमार आचार्य के इस वृत्तान्त को सुन जयकुमार ने अणुव्रत ग्रहण कर लिये । इसी बीच धनश्री का जीव नारकी उन नरक से निकलकर संसार में भ्रमण कर किसी प्रकार अकामनिर्जरा से मर कर जयकुमार के भाई पे रूप में उत्पन्न हुआ। उसका नाम विजय रखा गया। जयकुमार को वह प्रिय था, किन्तु उसे जयकुमार प्रिय नहीं था । विजयकुमार ने जयकुमार के विरुद्ध अनेक प्रकार के असत् कार्य किये, किन्तु जयकुमार उसके हितचिन्तन में लगा रहा। अन्त में विरक्त होकर जयकुमार
प्रव्रज्या अंगीकार कर ली। विजयकुमार ने जयमुनि को मारने के लिए आदमी भेजे, किन्तु उन आदमियों ने उन्हें नहीं मारा। बाद में यह समाचार विनय को ज्ञात हो गया। एक बार जयमुनि जब काकन्दी आये तो नन्दिवर्द्धन सन्निवेश में विजयकुमार कुछ व्यक्तियों के साथ गया और जयमुनि पर तलवार से प्रहार किया। शुभ परिणामों से मरकर जयमुनि आनत स्वर्ग के श्री विमान में अठारह सागर की आयु वाले देव हुए विजय भी व्याधिग्रस्त होकर आयु पूरी कर दुःखपूर्वक मृत्यु से मरकर पंकप्रभा पृथ्वी में दश सागर की आयु वाला नारकी हुआ ।
छठे भव की कथा
जम्बूद्वीप के भारतवर्ष में माकन्दी नगरं है । वहाँ का राजा कालमेघ था। उसके यहाँ बन्धुदत्त नाम का सेठ था। उसकी हारप्रभा नामक स्त्री थी। आनत करवासीदेव स्वर्ग की आयु का उपभोग करने के अनन्तर हारप्रभा के गर्भ में आया। पुत्र के रूप में उत्पन्न होने पर उसका नाम 'धरण' रखा गया। इसी बीच विजय का वह जीव नारकी उस नरक से निकलकर पुनः संसार में भ्रमण कर उसी नगरी में कार्तिक श्रेष्ठी की जया नामक भार्या के गर्भ में स्त्री के रूप में आया । जन्म के अनन्तर उसका नाम 'लक्ष्मी' रखा गया। कर्म का परिणाम अचिन्तनीय होने से वह धरण के साथ बिवाही गयी धरण की लक्ष्मी के प्रति प्रीति थी, किन्तु लक्ष्मी की धरण के प्रति प्रीति हीं थी । वह सोचा करती थी : मेरे लिए संसार व्यर्थ है। जो कि धरण ( मुझे) प्रतिदिन दिखाई देता है ।
एक बार मदनमहोत्सव के समय धरण कीड़ा के निमित्त मलय सुन्दर उद्यान में गया। नगर के द्वार पर पहुँचा । इसी समय पंचनन्दि सेठ का पुत्र देवनन्दी नगर के द्वार पर श्रेष्ठ रथ पर सवार होकर आया ।
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