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पढमो भवो ]
बहुफा
भूमिमाए अहासंजम सो भयवं चरणकरणनिरओ परिवसइ ।
ओ राइणा गुणणं अत्याइयागएवं पुच्छ्यिं । केन मे अज्ज इह अच्छेरयभूयं किंचि वत्थु दिट्ठ ति ? तओ उवलद्धविजयसेणायरिएण पणमिऊण रायाणं भणियं कल्लाणएणं - महाराय ! दिट्ठ मए अच्छेरयं । राइणा भणियं -कहेहि, किं तयं ति ? कल्लाणएण भणियं - इह असोगदत्तसेपिविद्धे असोयवणुज्जाणे सयलदट्ठव्वदंसणमहूसवो लावण्णजोण्हापवाहपम्हलियच उद्दिसाभोओ, सयल कलासंगओ विय मयलच्छणो, पढमजोव्वणत्थो वि वियाररहिओ, विणिज्जियकुसुमबाणो वि तव सिरिनिरओ, परिचत्तसव्वसंगो वि सबलजणोवयारी, मुत्तिमंतो विव भयवं धम्मो दिट्ठो मए गंधार जणवयाहिवस्स समरसेणस्स नत्तुओ, लच्छिसेणस्स पुत्तो पडिवन्नसमणलिंगो विजयसेणो नाम आयरिओ त्ति ।
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तओ राइणा भणियं - अहो ! तुमं कयपुण्णो, पावियं तए फलं लोयणाणं । अहं पि णं भयवंतं मोत्तूणमंतरायं सुए वंदिस्सामिति । अइक्कंताए रयणीए कयसयलगोसकिच्चो राया गओ धवलानि जिनायतनानि । तत्र च बहुप्रासुके भूमिभागे यथा संयमं स भगवान् चरणकरण-निरतः परिवसति ।
इतश्च राजा गुणसेनेन आस्थानिकागतेन पृष्टम् । केन भवता अद्य इह आश्चर्यभूतं किंचिद् वस्तु दृष्टम् - इति । तत उपलब्धविजयसेनाचार्येण प्रणम्य राजानं भणितं कल्याणकेन - महाराज ! दृष्टं मया आश्चर्यकम् । राज्ञा भणितम् -- कथय, किं तत इति ? कल्याणकेन भणितम् - इह अशोकदत्त - श्रेष्ठप्रतिबद्धे, अशोकवनोद्याने, सकलद्रष्टव्यदर्शनमहोत्सवः, लावण्य ज्योत्स्नाप्रवाहपक्ष्मलितचतुर्दिशायोगः सकलकलासङ्गत इव मृगलाञ्छन:, प्रथमयौवनस्थोऽपि विकाररहितः, विनिर्जितकुसुमबाणोऽपि तपःश्रोनिरतः, परित्यक्तसर्वसङ्गोऽपि सकलजनोपकारी, मूर्तिमान इव भगवान् धर्मः दृष्टो या गान्धारजन पदाधिपस्य समरसेनस्य नप्तृकः, लक्ष्मोसेनस्य पुत्रः प्रतिपन्नश्रमणलिङ्गो विजयसेनो नाम आचार्य इति ।
ततो राज्ञा भणितम् - अहो त्वं कृतपुण्यः, प्राप्तं त्वया फलं लोचनानाम् । अहमपि तं भगवन्तं मुक्त्वा अन्तरायं श्वो वन्दिष्ये इति । अतिक्रान्तायां रजन्यां कृतसकलगोसकृत्यः राजा के शिखरों के समान ऊंचे और सफेद थे, वहाँ पर बहुत प्रासुक भूमि में वे भगवान यथासंयम चारित्र में रत रहते हुए प्रवास करने लगे ।
इधर राजा गुणसेन ने राजसभा ( गोष्ठी मण्डप) में आये हुए व्यक्ति से पूछा, "आपमें से किसी ने आज तक यहाँ कोई आश्चर्यजनक वस्तु देखी है ?" तब विजयसेन आचार्य महाराज का दर्शन किये हुए कल्याणक ने राजा को प्रणाम कर कहा, "महाराज ! मैंने एक आश्चर्य देखा है ।" राजा ने कहा, "कहो, वह क्या है?" कल्याणक ने कहा, "यहाँ अशोकदत्त सेठ के द्वारा बनवाये हुए अशोकवन नामक उद्यान में गान्धार देश के स्वामी, समरसेन के नाती, लक्ष्मीसेन के पुत्र आचार्य विजयसेन को, जिन्होंने श्रमणदीक्षा धारण की है, मैंने देखा है । वे समस्त दर्शनीय वस्तुओं में नेत्रों के महोत्सव के समान हैं, लावण्यरूपी चाँदनी के प्रवाह से चारों दिशाओं के विस्तार को उन्होंने सफेद-सफेद कर दिया है । वे समस्त कलाओं से युक्त चन्द्रमा हैं । कुमारावस्था होने पर भी विकाररहित हैं, तपरूप लक्ष्मी में रत रहते हुए उन्होंने कामदेव को भी जीत लिया है । समस्त आसक्ति का त्याग करने पर भी सभी मनुष्यों के उपकारी हैं तथा वे मानो शरीरधारी भगवान् धर्म ही हैं ।
तब राजा ने कहा, "अरे ! तुमने पुण्य किया है, तुमने नेत्रों के फल को प्राप्त कर लिया है । मैं भी समस्त
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