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________________ ४६ [ समराइच्चकहा तमुज्जाणं दिट्टो य ण अणेयसमणपरियरिओ, संपुष्णसारयससि व तारयणपरिवुडो' विजयसेणायरिओ। तओ हरिसुन्भिन्नपुलएण, आणंदवाहजलभरियलोयणेणं, धरणिनिहित्तजाणुकरयलेण सविणयं पणमिओ अणेण । दिन्नो य से गुरुणा वि सारीरसाणमाणेगदुक्खविउडणो, सासयसिवसोक्खतरुवीयभूओ धम्मलाभो त्ति। तओ अट्टारससीलंगसहस्सभरवहे, सिद्धिवहूनिभराणुरायसमागर्माचतादुब्बले सेससाहुणो वंदिऊण उवविट्टो गुरुसमीवे । विम्हिओ य तस्स रूवचरिएहि । भणियं व णेण-भयवं कि ते सयलसंपुण्ण मणोहरस्सावि ईइसं निव्वेयकारणं? जेण इओ तओ ससंभमनिवडतनरिंदमउलिमणिप्पभाविसरविच्छुरियपायवीढं रायच्छि उज्झिय इमं ईइस इहलोयनिप्पिवासं वयविसेसं पडिवन्नो सि त्ति । विजयसेणेण भणियं-महाराय ! संसारम्मि वि निव्वेयकारणं पुच्छसि ? नणु सुलहमेत्थ निव्वयकारणं । सुण नारयतिरियनरामरभवेसु हिंडंतयाण जीवाणं । जम्मजरामरणभए मोतूण किमत्थि किंचि सुहं ॥६३॥ गतः तद् उद्यानम् । दृष्टश्च तेन अनेकधमणपरिकरितः सम्पूर्णशारदशशी इव तारजन (गणे) परिवृतः विजयसेनाचार्यः । ततो हर्षोभिन्नपुलकेन आनन्दवाष्पजलभृतलोचनेन धरणिनिक्षिप्तजानुकरतलेन सविनयं प्रणतोऽनेन । दत्तश्च तस्मै गुरुणाऽपि शारीरमासानेकदुःखविकुटनः, शाश्वतशिवसोख्यतरुबीजभूतः धर्मलाभ इति । "ततः अष्टादशशीलाङ्गसहस्रभारवहान, सिद्धिवधूनिर्भराऽनुरागसमागमचिन्तादुर्बलान् शेषसाधन वन्दित्वा उपविष्ट: गुरुसमीपे । विस्मितश्च तस्य रूपचरितैः । भणितं च तेन -भगवन् ! कि तव सकलसम्पूर्णमनोरथस्याऽपि ईदृशं निर्वेदकारणम् ? येन इतस्ततः ससम्भ्रमनिपतन्नरेन्द्रमौलिमणिप्रभा-विस रविच्छरितपादपीठां राजलक्ष्मी त्यवत्वा इदम्-ईदृशम्-इहलोकनिष्पिपासंव्रतविशेष प्रतिपन्नोऽसि इति । विजयसेनेन भणितम्-महाराज ! संसारेऽपि निर्वेदकारणं पृच्छसि । ननु सुलभमत्र निर्वेदकारणम् । शृणु _ नारक-तिर्यग्-नराऽमरभवेषु हिण्डमानानां जीवानाम् । जन्म-जरा-मरणभयानि मुक्त्वा किमस्ति किंचित् सुखम् ? ॥६३॥ विघ्न बाधाओं से निवृत्त होकर कल उनकी वन्दना करूंगा।" रात्रि बीत जाने पर समस्त प्रातःकालिक क्रियाओं को कर, राजा उस उद्यान में गया। उसने तारागणों से घिरे हुए शरत्कालीन पूर्ण चन्द्रमा के समान अनेक मुनियों से घिरे हुए विजयसेनाचार्य को देखा । उसने धरती पर घुटने और हथेलियां लगाकर उन्हें सविनय प्रणाम किया। उस समय हर्ष से रोमाञ्च हो रहा था, आनन्द स उसके नेत्रों में आँसू भर आये थे। गुरु ने भी उसे शारीरिक तथा मानसिक अनेक दुःखों को नष्ट करनेवाले शाश्वत सुखरूप वक्ष का बीजभत धर्मलाभ दिया। तब अठारह हजार शील के भेदों का भार वहन करने वाले, मोक्षरूपी वधू के प्रति अत्यधिक प्रेम के कारण उसकी प्राप्ति की चिन्ता से दुर्बल शेष साधुओं की वन्दना करके वह गुरु के समीप बैठ गया। उनके रूप और चरित्र से उसे विस्मय हुआ । उसने कहा, "भगवन् ! सम्पूर्ण मनोभिलाषाओं को पूर्ण करने की सामर्थ्य वाले होते हुए भी विरक्ति का क्या कारण है जिससे इधर-उधर बिखरकर पड़े हुए राजमुकुटों के मणियों की प्रभा के विस्तार से जिसका सिंहासन (पीढ़ा) छुआ गया है ऐसी राज्यलक्ष्मी को छोड़कर यह इस प्रकार का इस लोक की पिपासा से रहित, व्रत विशेष को प्राप्त हुए हो?" विजयसेन ने कहा, "महाराज ! संसार में भी विरक्ति १. तारा, तारयगण। २. संपाडिय। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001881
Book TitleSamraicch Kaha Part 1
Original Sutra AuthorHaribhadrasuri
AuthorRameshchandra Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1993
Total Pages516
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Story, & literature
File Size13 MB
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