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पढमो भवो]
कि अस्थि नारगो वा तिरिओमणुओ सुरो व संसारे। सो कोइ जस्स जम्मणमरणाइं न होंति पावाइं ॥६४॥ तेहि गहियाणा य कहं होइ रई हरिणतणयाणं व। कूडयपडियाण दढं वाहेहि विलुप्पमाणाणं ॥६५॥ सवेसि सत्ताणं खणियं पि हु दुक्खमेत्तपडियारं। जा न करेइ नणु सुहं लच्छी को तीए पडिवंधो ॥६६॥ केण ममेत्थुप्पत्ती कहिं इओ तह पुणो वि गंतव्वं ।
जो एत्तियं पि चिन्तेइ एत्थ सो को न निविण्णो ॥६७॥ अन्नं च एत्थ महाराय ! महासमुद्दमज्झगयं रयणमिव चितामणिसन्निभं दुल्लभं माणुसतणं, तहा खरपवणचालियकुसग्ग जलबिदुचंचलं जीवियं, कुवियभुयंगभीसणफणाजालसन्निहाय कामभोगा, सारयजलहरकामिणीकडक्खगयकण्णविज्जुचंचला य रिद्धि अकयसुहतवच्चरणाणं च दारुणो तिरियनारएसु विवागो त्ति । अवि य
किमस्ति नारको वा तिर्यङ- मनुजः सुरो वा संसारे। स कोऽपि यस्य जनन-मरणानि न भवन्ति पापानि ॥६४॥ तैग हीतानां च कथं भवति रतिर्हरिणतनयानामिव । कूटकपतितानां दृढं व्याधैविलुप्यमानानाम् ॥६५॥ सर्वेषां सत्त्वानां क्षणिकमपि खलु दुःखमात्रप्रतोकारम् । या न करोति ननु सुखं लक्ष्मी: कस्तस्यां प्रतिबन्धः ॥६६॥ केन ममात्रोत्पत्तिः कुत्र इतस्तथा पुनरपि गन्तव्यम् ।
य एतावद् अपि चिन्तयति अत्र स को न निविण्णः ॥६७॥ अन्यच्च-अत्र महाराज ! महासमुद्रमध्यगतं रत्नमिव चिन्तामणिसन्निभं दुर्लभं मनुष्यत्वम्, तथा खरपवनचालितकुशाग्रजलबिन्दुचञ्चलं जीवितम् ,कुपितभुजङ्गभीषण फणाजालसन्निभाश्च कामभोगाः, शारदजलधर-कामिनी-कटाक्ष-गजकर्ण-विद्युच्चञ्चला च ऋद्धिः अकृतशुभतपश्चरणानां च दारुणः तिर्यग् नारकेषु विपाक इति । अपि चका कारण पूछते हो ? निश्चित रूप से यहाँ पर विरक्ति का कारण सुलभ है । सुनो -
नरक, तिर्यंच, मनुष्य और देवगति में भ्रमण करते हुए जीवों को जन्म, जरा और मरण के भय को छोड़कर (अन्य) क्या कुछ भी सुख है ? संसार में नरक, तिर्यंच, मनुष्य और देव में से ऐसा कौन है जिसके पापरूप जन्म, मरण न हुए हो । जन्म-मरणादि से गृहीत जीवों की संसार में आसक्ति (प्रवृत्ति) वैसी ही होती है जैसे बहेलियों द्वारा जाल में पड़े और अत्यधिक रूप से नष्ट किये जाते हुए हिरण के बच्चों की होती है। निश्चित रूप से सभी प्राणियों का दु:ख का प्रतिकार क्षणिक है। जो लक्ष्मी सुख नहीं देती उसके प्रति प्रेम से क्या लाभ ? मेरी यहाँ उत्पत्ति किस कारण से हुई और यहाँ से पुनः कहाँ जाऊँगा? जो ऐसा विचार करता है वह कौन यहाँ विरक्त नहीं होगा? ॥६३-६७॥
और फिर महाराज ! महान् समुद्र के मध्य में पड़े हुए चिन्तामणि रत्न के समान मनुष्य-भव कठिन है। तीक्ष्ण पवन द्वारा कम्पित तण के अग्रभाग के जलबिन्दु के समान चंचल है यह जीवन । कामभोग क्रुद्ध होकर फण फैलाये हुए नाग के समान भयंकर है। ऋद्धि शरत्कालीन मेघ, कामिनी के कटाक्ष, हाथी के कान तथा बिजली के समान (चंचल) है। शुभ तपश्चरण न करनेवालों के कर्मों का भयंकर परिपाक तिर्यंच और नरकगतियों (के रूप) में होता है। और भी,
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