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________________ [ समराइच्चकहा भयरोग-सोग-पियविप्पओगबहुदुक्खजलणपज्जलिए। नडपेच्छणयसमाणे संसारे को धिइं कुणइ ॥६॥ सइ सासयम्मि ठाणे तस्सोवाए य परममुणिभणिए। एगंतसाहगे सुपुरिसाण जत्तो तहि जुत्तो॥६६॥ एवं च, महाराय ! संसारो चेव मे निव्वयकारणं। तहवि पुण निमित्तमेत्तमेयं संजायं ति । सुण-अत्थि इहेव विजए गंधारो नाम जणवओ, तत्थ गंधारपुरं नाम नयरं। तन्निवासी अहं तत्थेव चिट्ठामि । मित्तो य मे वीयहिययभूओ सोमवसुपुरोहियपुत्तो विहावसू नाम । सो य कहंचि आयंकपीडियदेहो विणिज्जियसुरासुरेण मच्चुणा मम समक्खमेव पंचत्तमवणीओ! तओ अहं तन्विओयाणलजलियमाणसो चिट्ठामि । जाव आगया अहासंजमविहारेणं विहरमाणा' वासावासनिमित्तं चत्तारि साहुणो, ठिया य नयराओ नाइदूरे महामहंताए गिरिगुहाए। सिट्ठा य मे अइपिय' त्ति करिय निययपुरिसेहिं । गओ अहं सिग्घमेव ते वंदिउं । दिट्ठा य तत्थ भयरोगशोकप्रियविप्रयोगबहदुःखज्वलनप्रज्वलिते । नट प्रेक्षणकसमाने संसारे को धुति करोति ॥६॥ सदा शाश्वते स्थाने तस्योपाये च परममुनिभणिते । एकान्तसाधके सुपुरुषाणां यत्नस्तत्र युक्तः ॥६६॥ एवं च, महाराज ! संसार एव मम निर्वेदकारणम् । तथापि पुननिमित्त-मात्रमेतत् संजातमिति । शृण-अस्ति इहैव विजये गान्धारो नाम जनपदः, तत्र गान्धारपुरं नाम नगरम् । तन्निवासो अहं तत्रैव तिष्ठामि । मित्रं च मम द्वितीयहृदयभतः सोमवसु पुरोहितपुत्रो विभावसु म । स च कथंचिद् आतङ्क पीडितदेहः विनिजितसुरासुरेण मृत्युना मम समक्षमेव पञ्चत्वमुपनीतः । ततोऽहं तद्वियोगानलज्वलितमानसस्तिष्ठामि, यावद् आगता यथासंयमविहारेण विहरन्तो वर्षाऽऽवासनिमित्तं चत्वारः साधवः, स्थिताश्च नगराद् नाऽतिदूरे महामहत्यां गिरिगुहायाम् ।। शिष्टाश्च मम 'अतिप्रियाः' इति कृत्वा निजकपुरुषैः। गतोऽहं शीघ्रमेव तान् वन्दितुम् । भय, रोग, शोक, प्रिय वियोग जैसी अत्यधिक दुःखरूपी अग्नि जिसमें प्रज्वलित हो रही है और जो नट के खेल के समान है, ऐसे संसार के विषय में कौन धैर्य धारण करता है ? सदा शाश्वत स्थान और उसकी प्राप्ति का उपाय एकान्त में साधना करनेवाले उत्तम मुनियों ने बताया है, उसके लिए सत्पुरुषों का प्रयत्न उचित ही है। ॥६८-६६॥ ___ इस प्रकार, हे महाराज, संसार ही मेरे लिए विरक्ति का कारण है । फिर भी यह निमित्त मात्र हो गया। सुनो-इसी देश में गान्धार नाम का जनपद है। उसमें गान्धारपूर नाम का नगर है। उसका निवासी मैं वहीं रहता था। मेरे दूसरे हृदय के समान सोमवसु पुरोहित का पुत्र विभावसु मेरा मित्र था। उसका शरीर किसी कारण ज्वररोग से पीड़ित हो गया। सुर और असुर को भी जिसने जीत लिया है ऐसी मृत्यु के द्वारा वह मेरा मित्र मेरे ही समक्ष पंचत्व को प्राप्त हो गया । तब मैं उसकी वियोगरूपी अग्नि में जलते हुए मन वाला बना रहता था। तभी संयमानुसार विहार करते हुए वर्षावास के लिए चार साधु आये और नगर के समीप में ही महामहती नामक पर्वतीय गुफा में ठहर गये। मेरे लिए अतिप्रिय मानकर स्वकीय लोगों ने मुझे बतलाया । मैं शीघ्र ही उनकी वन्दना के लिए गया। १. विहरमाणो। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org |
SR No.001881
Book TitleSamraicch Kaha Part 1
Original Sutra AuthorHaribhadrasuri
AuthorRameshchandra Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1993
Total Pages516
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Story, & literature
File Size13 MB
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