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________________ ४४ [ समराइच्चकहा संपुण्णदुवालसंगी, ओहिमणनाणाइसंयजुत्तो, सव्वंगसुंदराहिरामो, पढमजोव्वणसिरीसमद्धासियसरीरो भंडणमिव वसुमईए, आणंदो व्व सयलजणलोयणाणं, पच्चाएसो व्व धम्मनिरयाणं निलओ व्व परमधन्नयाए, ठाणमिव आदेयभावस्स, कुलहरं पिव खंतीए, आगरो इव गुणरयणाणं, विवागसव्वस्समिव कुसलकम्मस्स, महामहंतनिववंससंभूओ विजयसेगो नाम आयरिओ त्ति । सो य असोयदत्तसेट्टिपडिबद्धे' जिणाययणमंडिए अणुन्नविय ओग्गहं ठिओ असोयवणुज्जाणे । __ जत्थ नीइबलिया विव नरवई दुल्लहविवरा सहयारा, परकलत्तदसणभीया विव सप्पुरिसा अहोमुहट्ठिया वावीतडपायवा विणिवडियसप्पुरिचिताओ विव अडालविडालाओ अइमुत्तयलयाओ, दरिदकामिहिययाई विव समंतओ, आउलार्ड' लयाहराई, विसयपसत्ता विव पासंडिणो न सोहंति लिबहायवा, नववरगा विव कुसुभरत्तनिवसणा विरायंति रत्तासोया। किं बहुणा ? जत्थ मणोरहा विव जीवलोयस्स बहुवुतंता उज्जाणपायवा। तहा हिमगिरिसिहराइं विव उत्तुंगधवलाई जिणायसम्पूर्णद्वादशाङ्गी अवधि-मनोज्ञानातिशययुक्तः, सर्वाङ्गसुन्दराभिरामः, प्रथमयौवनश्रीसमध्यासितशरीरः, मण्डनमिव वसुमत्याः, आनन्द इव सकल जनलोचनानाम्, प्रत्यादेश इव धर्मनिरतानाम्,निलय इव परमधन्यतायाः, स्थानमिव आदेयभावस्य, कुलगृहमिव क्षान्त्याः , आकर इव गुणरत्नानाम्, विपाकसर्वस्वमिव कुशलकर्मणः, महामहानपवंशसम्भूतो विजयसेनो नाम आचार्य इति । स च अशोकदत्तश्रेष्ठिप्रतिबद्धे जिनायतनमण्डिते अनुज्ञाप्य अवग्रहं स्थितः अशोकवनोद्याने। यत्र नीतिबलिता इव नरपतयो, दुर्लभविवराः सहकाराः परकलत्रदर्शनभीता इव सत्पुरुषाः अधोमुखस्थिता वापीतटपादपाः, विनिपतित सत्पुरुषचिन्ता इव अतालविताला अतिमुक्तकलताः, दरिद्रकामहृदयानि इव समन्तत आकुलानि लतागृहाणि, विषयप्रसक्ता इव पाखण्डिनो न शोभन्ते निम्बपादपाः, नबवरका इव कुसुम्भरक्तनिवसना विराजन्ते रक्ताऽशोकाः । कि बहुना ? यत्र मनोरथा इव जीवलोकस्य बहुवृत्तान्ता उद्यानपादपाः तथा हिमगिरिशिखराणि इव उत्तुङ्ग शिष्यों के समूह से घिरे हुए तथा सम्पूर्ण द्वादशांग, वाणी और अवधिज्ञान एवं मनःपर्ययज्ञान के अतिशय से युक्त थे । उनका सारा शरीर सुन्दर और अभिराम था, कुमारावस्था रूपी लक्ष्मी से अधिष्ठित था। मानो वे पृथ्वी के आभरण, समस्त मनुष्यों के नेत्रों के आनन्द, धर्म में रत लोगों के लिए उदाहरण, परमधन्यता के आगार, ग्रहण करने योग्य भाव के स्थान, सहिष्णुता के कुलगृह गुणरूपी रत्नों के खजाने और शुभकर्मों के सम्पूर्ण फल थे। उनका जन्म बहुत बड़े राजवंश में हुआ था। वह अशोक दत्त सेठ के द्वारा बनवाये हुए जिनायतन से मण्डित 'अशोकवन' नामक उद्यान में अनुमति प्राप्त कर ठहरे हुए थे। जहाँ राजा मानो नीति के बल से युक्त थे । आमों में छिद्र दुर्लभ थे । (वहाँ के) सत्पुरुष परायी स्त्री से भयभीत ह ए के समान थे । बावड़ी के किनारे के वृक्ष नीचे मुख किये हुए स्थित थे। अतिमुक्तक लताएँ सत्पुरुष की गिरी हुई चिन्ता के समान शाखाओं से रहित थी अर्थात् जिस प्रकार सत्पुरुष चिन्ता-विमुक्त होते हैं उसी प्रकार अतिमुक्तक (माधवी) लताएँ शाखाओं से रहित थीं । निर्धन कामी व्यक्ति के हृदय के समान लतागृह चारों ओर से व्याप्त थे। विषयों में फंसे हुए पाखण्डियों के समान नीम के वृक्ष शोभित नहीं होते थे। लाल अशोकवृक्ष नवेली वधू के समान कुसुम्भी रंग के लाल वस्त्र धारण किये हुए शोभायमान हो रहे थे । अधिक कहने से क्या, जहाँ उद्यान के वृक्ष सांसारिक प्राणियों के मनोरथ के समान बहुवृत्तान्त से युक्त थे तथा जहाँ के जिनालय हिमालय १. पडिबद्ध। २. आउलाई । Jairt Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001881
Book TitleSamraicch Kaha Part 1
Original Sutra AuthorHaribhadrasuri
AuthorRameshchandra Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1993
Total Pages516
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Story, & literature
File Size13 MB
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