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________________ ३४० [समराइचकहा वसंतसमए नियगेहाओ चेव विसेसुज्जलनेवच्छो'वयंसयसमेओपयट्टो कोलानिमित्तं तामलित्तीतिलयभूयं अणंगनंदणं नाम उज्जाणं । अइयओ रायमगं, दिवो य वायायणनिविट्ठाए नयरिसामिणो ईसाणचंदस्स धूयाए विलासवईए । भवंतरभासओ समुप्पन्नो से ममोवरि अणराओ, विमुक्का वावायणासन्नं वच्चमाणस्स तोए ममोवरि सहत्थगुत्था बउलमालिया, लक्खिया प मे बिइयहिययभएण वसुभूइणा, निवडिया मे कंठदेसभाए। पुलइयं मए उवरिहुत्तं, दिट्ट से वायायणदिणिग्गयं वयणकमलं, समुप्पन्नो मे हिययम्मि परिओसो, पेच्छमाणीए य निमिया सा मए सिणेहबहुमाणं कठदेसे । एत्यंतरम्मि परिओसविसायगभिणं ईसिविहसियसणाहं नीससियमिमीए । अइकतो अहयं तमुद्देसं देहमेत्तेणं नपुण चित्तेण, पत्तो अणंगनंदणं उज्जाणं । तत्थ वि य वयंसयाणुरोहेण विचित्तकीलापवत्तो वि देहचेट्टाए तं चेव पयइसंदरं तीए वयणकमलं चितयंतो ठिओ कंचि काल। उचियसमएणं च पविट्रो तामलित्ति कयं उचियकरणिज्जं । अइक्कतो वासरो, समागया रयणी । सम्माणिऊण 'सिरं मे दुक्खेइ त्ति लहं चेव विसज्जिया वयंसया । गओ वासभवणं, ठिओ सयणिज्जे। तत्थ य अणाचिक्खणीयं असंभाव समये निजगेहादेव विशेषोज्ज्वलनेपथ्यो वयस्यसमेतः प्रवृत्तः क्रोडानिमित्तं ताम्रलिप्तीतिलक भतमनङ्गनन्दनं नामोद्यानम् । अतिगतो राजमार्गम्, दृष्टश्च वातायननिविष्ट या नगरोस्वामिन ईशान. चन्द्रस्य दुहिता विलासवाया। भवान्तराभ्यासतः समुत्पन्नस्तस्य ममोपर्यनुरागः, विमक्ता वातायनासन्नं व्रजतस्तया ममोपरि स्वहस्तग्रथिता बकुलमालिका, लक्षिता च मे द्वितोयहदय भतेन वसूभूतिना, निपतिता मे कण्ठदेशभागे। प्रलोकितं मया उपरिभूतम्' (ऊर्वम्) दृष्टं तस्या वातायनविनिर्गतं वदनकमलम्, समुत्पन्नो मे हृदये परितोषः, प्रेक्षमाणायां च स्थापिता सा मया स्नेहबहमानं कण्ठदेशे। अत्रान्तरे परितोषविषादभितमीषद्विहसितसनाथं निःश्व सितमनया । अतिक्रान्तोऽहं तमुद्देशं देहमात्रेण न पुनश्चित्तेन, प्राप्तोऽनङ्गनन्दनमुद्यानम् । तत्रापि च वयस्यानरोधेन विचित्रक्रीडाप्रवृत्तोऽपि देहचेष्टया तदेव प्रकृतिसुन्दरं तस्या वदन कमलं चिन्तयन् स्थितः कञ्चिकालम । उचिंतसमयेन च प्रविष्ट: ताम्रलिप्तोम्, कृतमुचितकरणीयम् । अतिक्रान्तो वासरः, सभागता रजनी। सम्मान्य 'शिरो मे दुःखयति' इति लध्वेव विसजिता वयस्याः। तो वासभवनम, स्थितः लगा। नगर में संगीत मण्डलियाँ प्रवृत्त हुई। ऐसे वसन्त समय के आने पर अपने घर से ही विशेष उज्ज्वल वस्त्र पहनकर मित्रों के साथ क्रीड़ा के लिए ताम्रलिप्ती के तिलक स्वरूप अनंगनन्दन नामक उद्यान की ओर निकल गया। राजमार्ग पर चला। झरोखे में बैठी हुई, नगर के स्वामी ईशानचन्द्र की पुत्री विलासवती ने मझे देख लिया। दूसरे भवों के अभ्यास से उसे मेरे प्रति अनुराग उत्पन्न हो गया। झरोखे के समीप से जाते हए मेरे ऊपर उसने अपने हाथों से गूंथी हुई मौलसिरी की माला फेंकी। वह मेरे कण्ठ में आकर पड़ी और उसे मेरे दूसरे हृदय के समान वसुभूति ने देख लिया । मैंने ऊपर देखा, उसका झरोखे से निकला हुआ मुखकमल दिखाई पड़ा, मेरे हृदय में सन्तोष उत्पन्न हुआ । उसे देखते हुए मैंने माला को स्नेह और सम्मान के साथ कण्ठ में धारण कर लिया। इसी बीच सन्तोष और विषाद से भरी हुई उसने कुछ मुसकराकर लम्बी सांस ली। मैंने उस स्थान को शरीर से तो पार कर लिया, किन्तु मन से नहीं। मैं अनंगनन्दन उद्यान में पहुंचा। वहां पर भी मित्र के अनुरोध से नाना प्रकार की क्रीड़ाओं में प्रवृत्त होने पर भी देव की चेष्टा से स्वाभाविक रूप से सुन्दर उसी कन्या के मुखकमल के विषय में सोचते हए कुछ समय तक रहा । उचित समय पर ताम्रलिप्ती में प्रवेश किया। योग्य कार्यों को किया । दिन बीत गया, रात हुई । आदर से 'मेरा शिर दुःख रहा है'-ऐसा कहकर शीघ्र ही मित्रों १. नेवत्यो-ख, २. दुक्खति-क। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001881
Book TitleSamraicch Kaha Part 1
Original Sutra AuthorHaribhadrasuri
AuthorRameshchandra Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1993
Total Pages516
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Story, & literature
File Size13 MB
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