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________________ पउत्तो भयो] २३७ भणिओ य सो धणेण -भद्द, उठेहि, मुंच विसायं। कज्जपहाणा खु पुरिसा हवंति, विसायबहुलो य इत्थियाजणो । ता मज्जेउ भद्दो । तओ विलिओ-विय उढिओ महेसरदत्तो, मज्जिओ सह धणेणं । दिन्नं से खोमजुयलं, परिहियं च तेणं। भुत्तुत्तरकालम्मि य भणिओ धणेणं-भद्द, एगजाइओ सज्जणभावओ य साहारणं ते इमं दविणजायं । ता इओ किंपि गिहिऊण सयं चेव निओयमणचिट्ठउ भद्दो । कि इमिणा भद्दस्स वि अणभिमएणं विबुहजनिदिएणं उभयलोयअईवकुच्छिएणं अहमजणतुठ्ठिजणएण जूययारचेट्ठिएणं ति । महेसरदत्तेण चितियं-अहो मे अहन्नया, तायरुहदेवकुलसरिसं इमस्स चेट्टियं, मम उण इमं ईइसं ति । अवि य न वि तह परोवयारं अकरतो लाघवं नरो लहइ । जह किज्जंतुवयारो परेण करुणापवन्नेणं ॥३४६॥ ता कि इमिणा, अवलंबेमि पोरिसं, करेमि संपयं पि सकुलसरिसं ति। चितिऊण भणियं महेसरदत्तेणं-अज्ज, धन्नो खु अहं, जस्स मे तुमए सह सणं समुप्पन्न । अओ परिचत्तं चेव मए संपयं एतेभ्यः षोडश सुवर्णानि । दत्तानि नन्दकेन । गता द्य तकाराः । भणितश्च स धनेन-भद्र ! उत्तिष्ठ, मुञ्च विषादम्, कार्यप्रधानाः खलु पुरुषा भवन्ति, विषादबहुलश्च स्त्रीजनः, ततो मज्जतु भद्र इति । ततो व्यलीक इव उत्थितो महेश्वरदत्तः, मज्जितो सह धनेन । दत्तं तस्मै क्षौमयुगलम् परिहितं च तेन । भुक्तोत्तरकाले च भणितो धनेन-भद्र ! एकजातिकः सज्जनभावतश्च साधारणं ते इदं द्रव्यम, तत इतः किमपि गृहीत्वा स्वयमेव नियोगमनुतिष्ठतु भद्रः। किमनेन भद्रस्याप्यनमिमतेन विवधजननिन्दितेन उभयलोकातिकुत्सितेन अधमजनतुष्टिजनकेन छू तकारचेष्टितेनेति । महेश्वरदत्तन चिन्तितम्-अहो ! मेऽधन्यता, तातरुद्रदेवकुलसदृशमस्य चेष्टितम्, मम पुनरिदमादशमिति । अपि च नापि तथा परोपकारमकुर्वन् लाघवं नरो लभते । यथा क्रियमाणोपकारः परेण करुणाप्रपन्नेन ।।३४६।। .. ततः किमनेन ? अवलम्बे पौरुषम्, करोमि साम्प्रतमपि स्वकुलसदशमिति चिन्तयित्वा भणितं महेश्वरदत्तन-आर्य ! धन्यः खल्वहम्, यस्य मे त्वया सह दर्शनं समुत्पन्नम्, अतः परित्यक्तमेव मया दो।" नन्दक ने दे दी। जुआ खेलने वाले (द्यूतकार) चले गये। धन ने महेश्वरदत्त से कहा-“भद्र ! उठो, विषाद छोड़ो, पुरुष लोग कर्मप्रधान होते हैं, स्त्रियाँ विषादप्रधान होती हैं । अतः भद्र ! स्नान करो।" तब लज्जित हुआ. मामदेवरदत्त उठा और उसने धन के साथ स्नान किया। धन ने उसे दो रेशमी वस्त्र दिये। उसने पहिन लिये। भोजन करने के बाद धन ने कहा-“भद्र ! एक जातिवाले और सज्जन भाववाले होने के कारण आपके लिए यह व्य साधारण है अर्थात् यह धन भी तुम्हारा है, अतः इसमें से कुछ लेकर आप स्वयं ही पुरुषार्थ करो। आपके लिए अनिष्ट, विद्वानों के द्वारा निन्दित, दोनों लोकों के लिए बुरा, नीच लोगों को सन्तुष्ट करने वाला यह जुआ खेलने का कार्य व्यर्थ है।" महेश्वरदत्त ने सोचा-अरे में कितना अधन्य हूँ ? इसका कार्य पिता रुद्रदेव के कुल के सदृश है और मेरा कार्य इस प्रकार का है ! कहा भी है परोपकार को न करता हुआ मनुष्य उतनी लघुता प्राप्त नहीं करता, जितनी करुणा को प्राप्त हुए दूसरे व्यक्ति के द्वारा उपकार किये जाने पर प्राप्त करता है ॥३४६॥ अत: इससे क्या ? मैं पुरुषार्थ का अवलम्बन करता हूँ और अपने कुल के सदृश कार्य करता हूँ-ऐसा सोचकर महेश्वरदत्त ने कहा-'बार्य ! मैं धन्य हूँ जो कि मैंने आपके दर्शन किये । अब मैंने इस समय विद्वावों के Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001881
Book TitleSamraicch Kaha Part 1
Original Sutra AuthorHaribhadrasuri
AuthorRameshchandra Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1993
Total Pages516
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Story, & literature
File Size13 MB
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