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________________ २३६ [समराइज्वाहा यक्खरं साहियं तेणं । अज्ज, वाणिययकुलफंसणो उभयलोयविरुद्धसेवी विबुहजनिदिओ विसपायवो व्व अवयारनिमित्तं चेव पाणिणं समप्पन्नो म्हि कुसुमउरनिवासी महेसरदत्तो नाम अहयं ति। सपण्णजणवज्जिएणं सयलदोसनिहाणभए गं जूएणं ईइसं अवत्थं पत्तो मिह । तओ धणेण चितियंअहो से विवेगो, एयावत्थागयं पि अप्पाषयं जाणइ अकज्जायरणं च परिवेएइ; ता गरुओ खु कोइ एसो त्ति चितिऊण भणियंभद्द, ता किं ते करीयउ ? तओ तेण अणुचियविन्भमं मिलायंतलोयणं सुस्संतवयणं खलंतक्खरं दरं जंपिउंन जंपियं चेव । तओ धणेण 'हारियं किपि भविस्सइ, तं न चएइ पत्थिळ' ति अत्थओऽवच्छिऊण भणिओ नंदओ-भद्द नंदय, पुच्छाहि एए वाहिं परिम्भमंते जूययरे, जहा 'भद्दाणं किमवरद्ध मिमिणा भद्देणं' ति। निग्गओ नंदओ। पुच्छिया तेण जययरा । सिट्ठ चिमेहिं । एसो खु वायामयगंथेणं सोलस सुवणे हारिऊण' अज्जसहिएण निरुद्धो वि छिदं लहिऊण छोहवावडाण अम्हाण अदाऊण सुवण्णयं पलाइऊण इह पविट्ठो त्ति । तओ साहियमिणं नंवएण धणस्स । भणिओ य तेण-देहि एयाण सोलस सुवण्ण। दिन्ना नंदएण। गया जययरा। प्रत्यागतसंवेगेन वापरुद्धनयनेन सगद्गवाक्षरं कथितं तेन-आर्य ! वाणिजककुलपांसन उभयलोकविरुद्धसेवी विबधजननिन्दितो विषपादप इव अपकारनिमित्तमेव प्राणिनां समत्पन्नोऽस्मि कसूमपूरनिवासी महेश्वरदत्तो नाम अहमिति । सपुण्यजनवजितेन सकलदोषनिधान भतेन द्य तेन ईदशामवस्थां प्राप्तोऽस्मि । ततो धनेन चिन्तितम्-अहा तस्य विवेकः, एतदवस्थागतमपि आत्मानं जानाति, अकार्याचरणं च परिवेदयति, ततो गुरुकः खलु कोऽप्येष इति चिन्तयित्वा भणितम् । भद्र ! ततः किं ते कियताम् ? ततस्तेन अनुचितविभ्रम मिलल्लाचनं शुष्यद्वदनं स्खलदक्षरं ईषद् जल्पित्वा न जल्पित. मेव । ततो धनेन 'हारितं किमपि भविष्यति तद् न शक्नोति प्रार्थितुम्' इति अर्थतोऽवगत्य भणितो नन्दक:-भद्र नन्दक ! पृच्छ एतान् बहिः परिभ्रमतो इतकारान्, यथा “भद्राणां किमपराद्धमेतेन भद्रेण इति । निर्गतो नन्दकः । पृष्टास्तेन द्यूतकाराः। शिष्टं च एभिः । एषः खलु वाचामयग्रन्थेन षोडश सुवर्णानि हारयित्वा अद्य सखिकेन (?) निरुद्धोऽपि छिद्रं लब्ध्वा क्षोभव्यापतेभ्याऽस्मभ्यमदत्त्वा सुवर्णकं पलाय्य इह प्रविष्ट इति । ततः कथितमिदं नन्दकेन धनाय। भणितश्च तेन । देहि कहा-"आर्य! वणिक् कुल' का कलंक, दोनों लोकों के विरुद्ध सेवन करने वाला, विद्वानों के द्वारा निन्दित, प्राणियों के उपकार के लिए विषवृक्ष के समान ही मानो मैं उत्पन्न हुआ हूँ। मेरा नाम महेश्वरदत्त है और मैं कुसुमपुर का रहने वाला है। पुण्यात्माओं के द्वारा निषिद्ध समस्त दोषो के निधानभूत जुए से इस अवस्था को प्राप्त हो गया हैं।" तब धन ने विचार किया-इसका विवेक आश्चर्यकारक है । इस अवस्था को प्राप्त हुआ भी अपने आपको जानता है और न करने योग्य कार्य को करने के कारण दुःखी हो रहा है। अतः यह कोई बड़ा आदमी होना चाहिए, ऐसा सोचकर कहा-"भद्र ! आपका क्या(कार्य)करूं ?" तब उसने अनुचित शंका से आंखें बन्द कर मुख को सुखाते हुए लड़खड़ाती वाणी में कुछ बड़बड़ाकर कुछ भी नहीं कहा । तब धन ने 'कुछ हार गया होगा' अत: कह नहीं सकता-इस प्रकार अभिप्राय जानकर नन्दक से कहा-"भद्र नन्दक! इन बाहर घूमने वाले जुआरियों से पूछो कि आप लोगों का इसने क्या अपराध किया है ?" नन्दक निकला। उसने जुआरियों से पूछा । जुआरियों ने बतलाया "यह वचन से सोलह स्वर्ण हारकर आर्य सखिक के द्वारा रोके जाने पर भी अवसर पाकर क्षोभयुक्त हम लोगों को स्वर्ण न देकर भागकर यहाँ घुस गया है ।" अनन्तर नन्दक ने धन से कहा । धन ने कहा- "इनको सोलह स्वर्ण दे १. हारविऊण-ख। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001881
Book TitleSamraicch Kaha Part 1
Original Sutra AuthorHaribhadrasuri
AuthorRameshchandra Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1993
Total Pages516
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Story, & literature
File Size13 MB
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