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________________ बउत्यो भयो] २३५ असंपाडियमणोरहो गेहं गच्छामि ? ता पच्चासन्न एव भयवं रयणायरो, एयमवगाहामि ति।नय संसयमणारूढो पुरिसो एगंतावायभीरू सयलयणाणंदयारिणि संपयं पावेइ। किं वा तीए रहियस्स पुरिससंखामेत्तफलसाहएणं जीविएणं । ता अणुचिट्ठामि समुद्दतरणं । संपहारिऊण नंदएण धणसिरीए य सह ठाविओ सिद्ध तो। एत्थंतरम्मि य उवट्टियाए मज्जणवेलाए दुहत्थमेतजरचीरनिवसणो उद्दामनहरविलिहियंगो सेडियाघसणधवलपाणी तंबोलरायरज्जियाहरो परिमिलाणकुसुममुंडमाली जूययरवंद्रपेल्लिओ भयकायरं मग्गओ पलोएमाणो आगओ जययरो ति। भणियं च णेण-अज्ज, सरणागओ म्हि, ता रक्खउ अज्जो एएसि अणज्जयराण। धणेणं भणियं-भद्द, वीसत्यो होहि; अह किंनिमित्तं पण एए भह अहिहवंति । तेण भणियं-अज्ज, भागधेयाणि मे पुच्छ, न सक्कुणोमि आचिक्खिउं । तो धणेण 'अहो से भावगरुओ आलाओ' त्ति चितिऊण भणियं-भद्द, अलं विसाएण; कस्स वि समवसाविभाओ न होइ; ता कहेउ भद्दो एत्थ कारणं । तओ पच्चागयसंवेगेण बाहरुद्धनयणेणं सगग्गमनेन—'कथमहमसम्पादितमनोरथो गेहं गच्छामि ? ततः प्रत्यासन्न एव भगवान रत्नाकरः, एवमवगाहे इति । न च संशयमनारूढः पुरुष एकान्तापायभोरुः सकलजनानन्दकारिणी सम्पदं प्राप्नोति । किं वा तया रहितस्य पुरुषसंख्यामात्रफलसाधकेन जोवितेन? ततोऽनुतिष्ठामि समुद्रतरणम् । सम्प्रधार्य (आलोच्य) नन्दकेन धनश्रिया च सह स्थापितः सिद्धान्तः ।। अत्रान्तरे च उपस्थितायां मज्जनवेलायां द्विहस्तमात्रजीर्णचोवरनिवसन उद्दामनखरविलिखिताङ्गः सेटिकाघर्षणधवलपाणिः ताम्बूलरागरक्ताधरः परिम्लानकुसुममुण्डमाली द्यूतकारवन्दप्रेरितो भयकातरं मार्गतः (पृष्ठतः) प्रलोकमान आगतो द्यूतकार इति । भणितं च तेन-आर्य ! शरणागतोऽस्मि, ततो, रक्षतु आर्य एतेभ्योऽनार्य द्यूतकारेभ्यः । धनेन भणितम्-भद्र ! विश्वस्तो भव, अथ किं निमित्तं पुनरेते भद्रमभिभवन्ति ? तेन भणितम्-आर्य! भागधेयानि मे पृच्छ, न शक्नीमि आख्यातुम् । ततो धनेन 'अहो! तस्य भावगुरुक आलापः' इति चिन्तयित्वा भणितमभद्र ! अलं विषादेन । कस्यापि समदशाविभावो न भवति। ततः कथयतु भद्रोऽत्र कारणम् । ततः मनोरथ पूर्ण किये मैं कैसे घर जाऊँ ? समीप में ही भगवान् रत्नाकर (समुद्र) हैं अतः इसी में अवगाहन करता हूँ। संशय को प्राप्त हुआ, एकान्त हानि से भयभीत पुरुष समस्त लोगों को आनन्द देने वाली सम्पत्ति को नहीं प्राप्त करता है । सम्पत्ति से रहित तथा पुरुष की संख्या मात्र फल को साधने वाले के जीने से क्या लाभ ? अर्थात् ऐसे पुरुष का जीवित रहना व्यर्थ है अतः समुद्र तैरता हूँ । नन्दक और धनश्री के साथ विचारकर सिद्धान्त स्थापित कर लिया। इसी बीच स्नान करने क समय दो हाथ मात्र पुराना वस्त्र पहिने हुए, बड़े-बड़े नाखूनों से निशानयुक्त अंग वाला, सफेद मिट्टी की रगड़ से जिसके हाथ सफेद थे, पान से जिसका अधर लाल रंगा हुआ था, मुरझाये हुए फूलों से युक्त मुड़ी हुई माला वाला, जुआरीवृन्द द्वारा प्रेषित, भय से कातर तथा पीछे की ओर देखता हुआ एक जुभारी आया। उस जुआरी ने कहा-"आर्य ! (मैं) शरणागत हूँ, अतः आर्य इन अनार्य जुआरियों से मेरी रक्षा करें।" धन ने कहा-“भद्र ! आश्वस्त हो ओ । किस कारण से ये आपका तिरस्कार कर रहे हैं ?" उसने कहा"आर्य ! मेरे भाग्य से पूछो, कहने में समर्थ नहीं हूँ।" तब धन ने, इसका भावों से भरा हुआ कथन आश्चर्यकारक है, ऐसा सोचकर कहा-“भद्र ! विषाद मत करो। किसी की एक जैसी दशा या अवस्था नहीं होती है। अतः भद्र । इसका कारण कहो। तब संवेग से आँसुओं के कारण चन्द नेत्रों वाला होकर गद्गद वाणी में उसने Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001881
Book TitleSamraicch Kaha Part 1
Original Sutra AuthorHaribhadrasuri
AuthorRameshchandra Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1993
Total Pages516
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Story, & literature
File Size13 MB
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