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________________ २३४ [समराइच्चकहा सस्ससा । तओ नियडिपहाणओ बाहजलभरियलोयणाए सदुक्खमिव भणियं धणसिरीए- अज्जउत्त, हिययसन्निहिया गुरू । जइ पुण तुमं मं उज्झिऊण गच्छहिसि, ता सिटुतुह इम, अवस्समहमप्पाणयं बाबाइस्सं' ति अन्वत्तसई रोविउं पवत्ता । एत्यंतरम्मि समागया धणस्स जणणी । अन्भुत्थिया तेण। निग्गया य धणसिरी । लक्खिओ से भावो इमीए। अणुसासिओ य तीए बहुविहं सुओ। जहाजाय, दीहाणि खु देसंतराणि, सुलहो विओगो, दुल्लहो पुणो वि संगमो, किलेसायासपउरं च अत्थोवाजणं, अविसामो य मूलं इमस्स । ता जइ वि तुमं सयलगुणसंजुओ, तहा वि विसेसओ खमाइगणेस जत्तो कायवो। अणवरयं च मे पउत्ती दायव्व ति। धणेण भणियं-अंब, जं तुमं आणवेसि । तओ गया से जणणी । विसज्जाविया य तीए वहू [पेईघराओ, अणजाणह तुम्भे धणेण सह धणसिरि गच्छमाणि ति । गता सहरिसं । अणुण्णाया तेहिं] पयट्रो सस्थो, अणवरयपयाणएहिं च पत्तो दुमासमेत्तेण कालेण तामलिति । विद्वो नरवई। बहमग्निओ तेणं । निओइयं भंडं। न समासाइओ जहिच्छियलाहो। तओ चितियमणेणं । कहमहं ततो निकृतिप्रधानतो वाष्पजलभृतलोचनया सदुःखमिव भणितं धनश्रिया-आर्यपुत्र ! हृदयसन्निहिता गुरवः, यदि पुनस्त्वं मामुज्झित्वा गमिष्यसि ततः शिष्टस्तवेदम्, अवश्यमहमात्मानं व्यापादयिष्यामीति अव्यक्तशब्दं रोदित प्रवृत्ता। अत्रान्तरे समागता धनस्य जननी। अभ्युत्थितस्तेन । निर्गता च धनश्रीः । लक्षितस्तस्या भावोऽनया। अनुशासितस्तया बहुविधं सुतः। यथाजात ! दीर्घाणि खलु देशान्तराणि, सुलभो वियोगः, दुर्लभः पुनरपि सङ्गमः, क्लेशायासप्रचुरं चार्थोपार्जनम्, अविषावश्च मूलमस्य । ततो यद्यपि त्वं सकलगुणसंयुतस्तथाऽपि विशेषतो क्षमादिगुणेषु यत्नः वर्तव्यः, अनवरतं च मे प्रवृत्तिर्दातव्या इति । धनेन भणितम्-अम्ब ! यत् त्वमाज्ञापयसि । ततो गता तस्य जननी । विसर्जिता च तया वधूः । [पितृगृहं, अनुजानीत यूयं धनेन सह गच्छन्ती धनश्रियमिति । गता सहर्षम् अनुज्ञाता तैः] - प्रवत्तः सार्थः, अनवरतप्रयाणकैश्च प्राप्तो द्विमासमात्रेण कालेन ताम्रलिप्तीम् । दृष्टो नरपतिः । बहुमतस्तेन । नियोजितं (विक्रीतं) भाण्डम् । न समासादितो यथेष्टलाभः । ततश्चिन्तित. मानो दुःख के साथ धनश्री ने कहा--- "आर्यपुत्र ! गुरुजन हृदय में विद्यमान हैं, यदि आप मुझे छोड़कर जाते हैं तो मैं आपसे कहती हैं कि मैं अवश्य आत्महत्या कर लूंगी।" ऐसा कहकर अव्यक्त वाणी में रोने लगी। इसी बीच धन की माता आयी । धन आसन छोड़ कर खड़ा हो गया और धनश्री निकल गयी। माता ने धनश्री के भाव को समझ लिया। उसने (माता ने)पुत्र को अनेक प्रकार की शिक्षा दीदीर्घ । जैसे-पुत्र! देशान्तर दीर्घ होते हैं, वियोग सुलभ है और संयोग दुर्लभ है, धन का उपार्जन करने में क्लेश और परिश्रम होता है और इसका मूल अविषाद है। अतः यद्यपि तुम समस्त गुणों से युक्त हो तथापि विशेष रूप से क्षमादि गुणों में यत्न करना और निरन्तर मुझे अपना समाचार भेजना।" धन ने कहा- “माता ! जो आज्ञा।" तब उसकी माता चली गयी। उसने बहू को भेज दिया। सार्थ (काफिला) चल पड़ा। निरन्तर दो माह चलने के बाद ताम्रलिप्ती पहुंचे। राजा ने देखा । उसने (राजा ने) आदर किया। (धन ने) माल बेचा (किन्तु) यथेष्ट लाभ नहीं हुआ। तब इसने विचार किया-बिना १.अयं कोष्ठान्तर्गत पाठः ख पुस्तक प्रान्ते वर्तते। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001881
Book TitleSamraicch Kaha Part 1
Original Sutra AuthorHaribhadrasuri
AuthorRameshchandra Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1993
Total Pages516
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Story, & literature
File Size13 MB
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