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बजत्यो भवो]
२३३ तिवग्गसाहणमलं अस्थमुवज्जिङ । ता करेहि मे पसायं समीहियसंपायणेणं ति। विन्नत्तो तेणं सेट्री। भणियं च णेण-नंदय, एवं भणाहि मे जायं । जहा-वच्छ, अत्थि चेव तुह सयलनयरसेट्टिहितो वि अमहियं तिवग्गसाहणमूलं अत्थजायं । ता करेहि इमिणा चेव जहासमीहियं ति । नंदएण भणियंताय, अस्थि एवं; तहवि पुण न एयस्स अन्नहा धिई हवइ । सेट्ठिणा भणियं-जहा एयस्स धिई हवइ तहा करेउ त्ति । निवेइयमिणं नंबएण धणस्स । परितुट्ठो खु एसो। कया संजत्ती। पयट्टियं नाणापयारं भंडजायं। कारावियमाघोसणं। जहा-धणो सत्थवाहपुत्तो इमाओ नयराओ तामलित्ति गच्छिस्सइ । ता तेण समं जो कोइ तन्नयरगामी, सो पयट्टउ । जस्स जं न संपज्जइ पाहेयमुवगरणं वा, तस्स तं एस संपाडेइ त्ति । पयट्टो जणो।
एत्थंतरम्मि चितियं धणसिरीए । सोहणं मे भविस्सइ एयस्स पवसणेणं । आयणियं च पच्चासन्ने गमणदियहे, जहा नंदओ वि इमिणा सह गमिस्सइ त्ति । तओ मायावत्तिए भणिओ सत्थवाहपुत्तो । अज्जउत्त, पत्थिओ तुमं; मए उण किं कायव्वं ति । तेण भणियं-सुंदरि, गुरूणं
त्रिवर्गसाधनमूलमर्थमुपार्जितुम् । ततः कुरु मे प्रसादं समीहितसम्पादनेनेति । विज्ञप्तस्तेन श्रेष्ठी। भणितं च तेन-नन्दक ! एवं भण मे जातम, यथा वत्स ! अस्त्येव तव सकलनगरवेष्ठिभ्योऽपि अभ्यधिक त्रिवर्गसाधनमलमर्थजातम, ततः करु अनेनैव यथासमीहितमिति । नन्दकेन भणितमतात ! अस्त्येतद्, तथाऽपि पुन तस्यान्यथा तिर्भवति । श्रेष्ठिना भणितम-यथैतस्य धतिभवति तथा करोतु इति । निवेदितमिदं नन्दकेन धनस्य । परितुष्ट: खल्वेषः। कृता संयात्रा (यात्रायै समूद्योग:)। प्रवर्तितं च नानाप्रकारं भाण्डजातम। कारितमाघोषणम । यथा-धनः सार्थवाहपुत्रोऽस्मान्नगशत् ताम्रलिप्ती गमिष्यति, ततस्तेन समं यः कोऽपि तन्नगरगामी स प्रवर्तताम, यस्य यम्न सम्पद्यते पाथेयमुपकरणं वा तस्य तदेष सम्पादयतीति । प्रवृत्तो जनः।
अत्रान्तरे चिन्तितं धनश्रिया-शोभनं मे भविष्यति एतस्य प्रवसनेन, आकणितं च प्रत्यासन्ने गमनदिवसे, यथा नन्दकोऽपि अनेन सह गमिष्यतोति । ततो मायावृत्त्या भणितः सार्थवाहपुत्रः। आर्यपुत्र ! प्रस्थितस्त्वम्, मया पुनः किं कर्तव्यमिति । तेन भणितम्-सुन्दरि । गुरूणां शुश्रूषा।
पुरुष जीवन को विफल करता है। धर्म, अर्थ और काम तीनों के मूल साधन धन के उपार्जित करने का मेरा यह समय है । अतः इष्ट कार्य की सिद्धि कर मुझ पर अनुग्रह करो।" नन्दक ने सेठ से कहा। सेठ ने कहा-"नन्दक ! मेरे पुत्र से यह कहो कि पुत्र ! तुम्हारे नगर के सेठों से भी अधिक धर्म, अर्थ कामरूप त्रिवर्ग के साधन का मूलधन (मेरे पास) है । अतः इसी से इष्टकार्य करो।" नन्दक ने कहा-"पिता जी ! ऐसा ही है फिर भी इसका धैर्य अन्य प्रकार से कायम नहीं रहता है।" सेठ ने कहा- "जिससे इसे धैर्य हो वही करे।" नन्दक ने यह बात धन से निवेदन की। यह (धन) सन्तुष्ट हुआ। उसने यात्रा की तैयारी की। अनेक प्रकार का माल लिया । घोषणा करा दी-"धन नामक वणिकपुत्र इस नगर से ताम्रलिप्ती जायेगा। अत: उसके साथ जो कोई उस नगर को जानेवाला हो, वह चले । जिसके पास नास्ता अथवा अन्य कोई वस्तु न हो, वह यह देगा।" लोग तैयार हो गये।
इसी बीच धनश्री ने सोचा-- इसके जाने से मेरा अच्छा होगा । जाने का दिन निकट आने पर इसने सुना कि नन्दक भी इसके साथ जायेगा । तब बनावटी रूप से वणिकपुत्र से कहा-"आर्यपुत्र ! आप जा रहे हैं, मैं क्या करूंगी।" उसने कहा-"सुन्दरि ! बड़ों की सेवा करना।" तब कपट की प्रधानता के कारण आँखों में आंसू भरकर
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