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________________ ११ एवं गुणाहिरामे सरयसमए दिट्टो धणेण तन्नयरवत्थत्वओ चेव समिद्धिदत्तो नाम सत्यवाहपुत्तो ति। देसंतराओ बहुयं दविणजायं विढविऊण महाकत्तिगीए दीणाणाहाणमणिवारिय महादाणं देंतो त्ति । तओ तं दळूण चितियं धणेण। धन्नो खु एसो, जो एवं नियभुयज्जिएणं दविणजाएणं परोवयारं करेइ । जाओ विमणो। भणिओ य पासपरिवत्तिणा नंदएणं । सत्थवाहपुत्त, किमुव्विग्गो विय तुमं जाओ त्ति। साहिओ य तेणं निययाहिप्पाओ। नंदएणं भणियं-सत्थवाहपुत्त, थेवमिय; अत्थि भवओ वि महापुण्णोवज्जियं दविणजायं । ता देउ इमाओ वि विसेययरं भवं पि। धणेण भणियं--किमणेण पुवपुरिसज्जिएणं । भणियं च लोए सलाहणिज्जो सो उ नरो दोणपणइवग्गस्स। जो देइ नियभुयज्जियमपत्थिओ दव्वसंघायं ॥३४५॥ न य मे किंचि नियभुयज्जियं अस्थि । ता विन्नवेहि तायं । करेमि अहं पुव्वपुरिससेवियं वाणिज्जं, गच्छामि दिसायत्ताए। कालोचियमकुवमाणो पुरिसो जीवियं विहलीकरेइ । कालो य मे एवं गुणाभिरामे शरत्समये दृष्टो धनेन तन्नगरवास्तव्य एव समृद्धिदत्तो नाम सार्थवाहपुत्र इति । देशान्तराद् बहुकं द्रविणजातं अर्जयित्वा महाकार्तिक्यां दीनानाथेभ्योऽनिवारितं महादानं दददिति । ततस्तं दृष्ट्वा चिन्तितं धनेन-धन्यः खल्वेषः, य एवं निजभुजाजितेन द्रविणजातेन परोपकारं करोति । जातो विमनस्कः। भणितश्च पार्श्वपरिवर्तिना नन्दकेन । सार्थवाहपुत्र ! किमुद्विग्न इव त्वं जात इति । कथितश्च तेन निजाभिप्रायः। नन्दकेन भणितम्-सार्थवाहपुत्र ! स्तोकमिदम्, अस्ति भवतोऽपि महापुण्योपार्जितं द्रविणजातम्, ततो ददातु अस्मादपि विशेषिततरं भवानपि । धनेन भणितम्-किमनेन पूर्वपुरुषोपार्जितेन ? भणितं च लोके श्लाघनीयः स तु नरो दोनप्रणयिवर्गाय । यो ददाति निजभुजार्जितमप्रार्थितो द्रव्यसंघातम् ॥३४५॥ न च मम किञ्चिद् निजभुजार्जितमस्ति, ततो विज्ञपय तातम्, करोमि अहं पूर्वपुरुषसेवितं वाणिज्यम्, गच्छामि दिग्यात्रया। कालोचितमकुर्वन् पुरुषो जीवितं विफलीकरोति । कालश्च मे इस प्रकार के गुणों से सुन्दर शरदऋतु में धन ने उसी नगर में रहने वाले समृद्धिदत्त नामक व्यापारी के पुत्र को देखा । वह दूसरे देश से बहुत धनोपार्जन कर महाकार्तिकी के अवसर पर दीन तथा अनाथ लोगों को इच्छानुसार बे-रोकटोक महादान दे रहा था। उसे देखकर धन ने विचार किया-यह समृद्धि दत्त धन्य है जो अपनी भुजाओं से अर्जित धन से परोपकार करता है। धन अन्यमनस्क हो गया। समीपवर्ती नन्दक ने उससे कहा-"सार्थवाहपुत्र !(वणिकपुत्र)तुम उद्विग्न से क्यों हो गये हो ?" धन ने अपना अभिप्राय कहा। नन्दक ने कहा"यह तो बहुत थोड़ा है। आपके पास भी महान् पुण्य से उपार्जित किया हुआ धन है । अतः आप भी इससे अधिक दान दीजिए।" धन ने कहा-"पूर्वजों के द्वारा कमाये हुए इस धन को दान देने से क्या ? कहा भी है लोक में वही मनुष्य प्रशंसनीय होता है जो बिना मांगे ही दीन-याचकों को अपनी भुजाओं से उपार्जित द्रव्यसमूह दान में देता है ॥३४५।। मेरी स्वयं की भुजाओं से कमाया हुआ कुछ भी नहीं है, अत: पिता जी से निवेदन करो कि मैं पूर्वजों के द्वारा सेवित वाणिज्य (व्यापार) को करूंगा, दिशाओं की यात्रा पर जाऊँगा । समयोजित कार्य को न करता हुआ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001881
Book TitleSamraicch Kaha Part 1
Original Sutra AuthorHaribhadrasuri
AuthorRameshchandra Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1993
Total Pages516
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Story, & literature
File Size13 MB
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