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________________ पसाचो भो] अइक्कंतो कोइ कालो धणस्स। पत्तो य से कालवकमेणं नवजलभरियसरोवरविरायंतकमलायरो कमलायरपसत्तउम्मत्तमहुरगुजंतभमिरभमरउलो भमरउलुच्छाहियसुरयखिन्नसहरिसकलालाविहंसउलमुहलो मुहलगोयालजुवइपारद्धसरसगेयरवोच्छइयच्छेत्तमग्गो सरयसमओ त्ति । अवि य निन्भरकुसुमभरोणयरसाउमुहलेहि असणवाहिं। कासकुडएहि य दढं जत्थ हसंति व्व रण्णाई ॥३४१॥ निस्सेसं लवणोयहिसलिलं मोत्तूण जत्थ सोहंति । धवला घणा पुणो पीयसरसदुद्धोयहिजल व्व ॥३४२॥ दीसंति जत्थ सत्तच्छयाण मयवारणेहि भग्गाई। गंधायड्डियगण्डालिजालरुसिएहि व वणाई॥३४३॥ चिरसंचियं च विउणं मुक्को घणबंधणस्स व मियंको। सरउम्मत्तो व्व जहिं जणस्स जोण्हं पविविखरइ ॥३४४॥ धनस्य । प्राप्तश्च तस्य कालक्रमेण नवजलभतसरोवरविराजकमलाकरः कमलाकर: सक्तोन्मत्तमधुरगुञ्जभ्रमितृभ्रमर कुलो भ्रमर कुलोत्साहितसुरतखिन्नसहर्षकलालापिहंसकुलमखरो मुखरगोपालयुवतिप्रारब्धसरसगेयरवोच्छादितक्षेत्रमार्गः शरत्समय इति । अपि च निर्भरकुसुमभरावनतरसायु(भ्रमर)मुखरैरशनबाणैः । काशकुटजैश्च दृढं यत्र हसन्तीव अरण्यानि ।।३४१॥ निःशेषं लवणोदधिसलिलं मुक्त्वा यत्र शोभन्ते । धवला घनाः पुनः पीतसरसदुग्धोदधिजला इव ॥३४२॥ दृश्यन्ते यत्र सप्तच्छदानां मदवारणैर्भग्नानि । गन्धाकर्षितगण्डालिजालरुष्टैरिव वनानि ॥३४३॥ चिरसंचितां च विगुणां मुक्तो घनबन्धनादिव मृगाङ्कः । शरदुन्मत्त इव यत्र जनस्य ज्योत्स्ना प्रविष्किरति ॥३४४॥ गया। कालक्रम से शरद् ऋतु आ गयी। उस समय नवीन जल से भरे हुए तालाब में कमलों का समूह सुशोभित हो रहा था। कमलों के समूह पर मधुर गुंजन करते हुए मतवाले भ्रमरों का समूह मंडरा रहा था । भौरों के समूह से उत्साहित सुखक्रीड़ा से खिन्न हंसों का समूह हर्ष से युक्त होकर धीमी और कोमल गुनगुनाहट का शब्द कर रहा था। शब्द करती हुई ग्वालयुवतियों द्वारा प्रारम्भ किये हुए सरस गाने की ध्वनियों से खेतों का रास्ता व्यस्त हो रहा था। पुनश्च अत्यधिक फूलों के समूह से झुके हुए भौंरों की गुनगुनाहट, चित्रकवृक्ष, बाण; कास और कमलों से जहां पर जंगल मानो अत्यधिक रूप से हँस रहे थे। सम्पूर्ण लवणसागर के जल की वर्षा कर जहाँ सफेद बादल शोभित हो रहे थे । वे ऐसे लग रहे थे मानो उन्होंने क्षीरसागर के सरस जल को पी लिया हो। जहाँ पर मतवाले हाथियों के द्वारा तोड़े हुए सप्मच्छद वृक्षों की गन्ध से आकर्षित गैंडों और भौंरों के समूह से वन रुष्ट हुए-से दिखाई देते थे। लम्बे समय से बहुत कसकर रस्सी से बांधे हुए चन्द्रमा को मानो छोड़ दिया गया हो, इस प्रकार उन्मत्त की तरह शरदऋतु जहाँ पर लोगों पर चाँदनी बिखेर रही थी॥३४१-३४४॥ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001881
Book TitleSamraicch Kaha Part 1
Original Sutra AuthorHaribhadrasuri
AuthorRameshchandra Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1993
Total Pages516
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Story, & literature
File Size13 MB
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