SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 288
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ कुच्छिसि धूयत्ताए उववन्नो । जाया उचियसमएणं । कय से नामंधणसिरि ति। पत्ता जोव्वर्ण। दिदा य तेणं अमीचंदमहूसवे मयणलीलाहरुज्जाणाओ रइरूवधारिणी सहियणसमेया सभवणमवगच्छंती धणसिरि ति। तओ पुत्वभवन्मत्थमेत्तीगुणाओ साहिलासं पलोइया' धणेणं । तीए वि य तहम्मत्थमच्छराओ सुइरमवलोइओ धणो ति । लक्खिओ से भावो पासवत्तिणा सोमदेवाभिहाणेणं पुरोहियसुएणं । सवणपरंपराए समागओ सवणगोयरं एस वुत्तंतो वेसमणस्स। तओ वरिया तेणं धनिमित्त धणसिरी। दिना सबहुमाणं पुण्णभद्देण । मुणिओ एस वुत्तंतो परोप्परमिमेहि । परितुद्वोधणो नियहियएणं, दूमिया धणसिरी । कयाई वेसमणपुण्णभद्देहि महावद्धावणयाई। वत्तो महाविभूईए सयलनयरच्छेरयभूओ विवाहो।। तओ अइक्कतो कोइ कालो । घडिया एसा तस्स चेव घरपसूएणं नंदयाभिहाणेणं चेडेणं । सो य किल अग्गिसम्मस्स तावसपरियाए वट्टमाणस्स अज्जवकोडिंण्णपरियारओ संगममो नाम परममित्तो आसि त्ति । तओ तोए सद्धि विसेसओ विडंबणापायं विसयसुहमणुहवंतस्स नोत्पन्नः । जाता उचितसमयेन । कृतं तस्या नाम धनश्रोरिति । प्राप्ता यौवनम् । दृष्टा च तेन अष्टमोचन्द्रमहोत्सव मदनलोलागृहोद्यानाद् रतिरूपधारिणो सखोजनसमेता स्वभवनमुपगच्छन्ती धनश्रीरिति । ततः पूर्वभवाभ्यस्तमैत्रीगुणात् साभिलाष लोकिता धनेन । तयाऽपि च तथाऽभ्यस्तमत्सरात सूचिरमवलोकितो धन इति । लक्षितस्तस्य भावः पार्श्ववतिना सोमदेवाभिधानेन परोहितसतेन । श्रवणपरम्परया समागतः श्रवणगोचरमेष वृत्तान्तो वैश्रमणस्य । वतो वता तेन निमित्तं धनश्रोः । दत्ता सबहुमानं पूर्णभद्रेण । ज्ञात एष वृत्तान्तः परस्परमाभ्याम् । परितुष्टः धनो निजहृदयेन, दना धनश्रीः । कृतानि वैश्रमणपूर्णभद्राभ्यां महावर्धापनकानि । वृत्तो महाविभत्या सकलनगराश्चर्यभूतो विवाहः । ततोऽतिक्रान्तः कोऽपि कालः। घटितैषा तस्यैव गृहप्रसूतेन नन्दकाभिधानेन चेटेन । स च किल अग्निशर्मणः तापसपर्याये वर्तमानस्य आर्जवकोण्डिन्यपरिचारक: संगमको नामपरममित्रमासीदिति । ततस्तया साध विशेषतो विडम्बनाप्रायं विषयसुखमनुभवतोऽतिक्रान्तः कोऽपि कालः रूप में आयी। उचित समय पर जन्म हुआ। उसका नाम धनश्री रखा गया। वह यौवनावस्था को प्राप्त हुई। धन ने अष्टमी के चन्द्रमा के महोत्सव पर मदनलीला गृह नामक उद्यान से अपने घर को जाती हुई रति से समान हप को धारण करने वाली धनश्री को सखियों के साथ देखा । पूर्वभवों में अभ्यस्त मैत्रीगुण के कारण धन ने उसे अभिलाषायुक्त होकर देखा। उसने भी पूर्वजन्मों में अभ्यस्त ईर्ष्या के वश देर तक धन को देखा । धन के भाव को समीपवर्ती सोमदेव नामक पुरोहित के पुत्र ने देखा। कानों-कान यह बात वैश्रमण ने सुनी। तब उसने धन के लिए धनश्री को चुना। पूर्णभद्र ने बड़े आदरपूर्वक स्वीकृति दी। यह वृत्तान्त इन दोनों ने भी परस्पर सुना । धन अपने हृदय से सन्तुष्ट हुआ। धनश्री दुःखी हुई। वैश्रमण और पूर्णभद्र ने बहुत बड़े उत्सव कराये । सम्पूर्ण नगर को आश्चर्य में डालने वाले बड़े वैभव के साथ विवाह हुआ। ___ अनन्तर कुछ समय व्यतीत हुआ। यह उसी घर में उत्पन्न हुए नन्दक नामक चेट (सेवक) से मिल गयी। जब अग्निशर्मा तापस पर्याय में था तब नन्दक आर्जवकौण्डिन्य का परिचारक संगमक नामक परम मित्र था। तदनन्तर उसके साथ में विशेष रूप से छल से भरे हुए, विषय सुख का अनुभव करते हुए धन का कुछ समय बीत १. पुलझ्या -क। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001881
Book TitleSamraicch Kaha Part 1
Original Sutra AuthorHaribhadrasuri
AuthorRameshchandra Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1993
Total Pages516
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Story, & literature
File Size13 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy