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________________ भूमिका जातियों का उल्लेख पाया जाता है । यहां किसी को अपनी जाति का गर्व न करने की शिक्षा दी गयी है। प्रथम भव के अन्तर्गत विभावसु की कथा आयी है, जिसने अगला जन्म कुत्ते के रूप में पाया, क्योंकि एक बार मदन. महोत्सव पर नागरिकों की मण्डलियाँ आनन्द मना रही थीं तब विभावसु ने पुष्यदत्त की मण्डली से घृणा की; क्योंकि उसका जन्म नीच कुल में हुआ था। कुत्ते की योनि के बाद विभावसु को इसी जाति-मद के संस्कार के कारण अनेक कुयोनियों में भटकना पड़ा। समराइच्चकहा में कुमारावस्था, गृहस्थावस्था और श्रमण-इन तीन रूपों में मनुष्य-जीवन का विभाजन प्राप्त होता है। प्रशान्त तपोवन और श्रमणत्व की अत्यधिक प्रशंसा की गयी है। प्रत्येक भव की कथा में हमें श्रमणाचार्य के दर्शन होते हैं जो अपने बड़े शिष्य समुदाय से परिवृत रहते हैं । तपोवन दीन अनाथ, भूली-भटकी स्त्रियों तथा उच्च तपस्वियों का आश्रय हुआ करते थे। सब प्रकार से समाज से और उपहास को प्राप्त व्यक्ति भी यहाँ ससम्मान और सुखपूर्वक रह सकते थे। प्रथम भव की कथा में आर्जवकौण्डिन्य ऋषि अग्निशर्मा से कहते हैं कि राजा के अपमान से पीड़ित, निर्धनता के दुःखों से तिरस्कृत, दुर्भाग्य के कलंक से दुःखी और इष्टजनों के वियोगरूपी अग्नि से सन्तप्त लोगों के लिए इस लोक और परलोक में सुख देने वाला तपोवन परम शान्ति का स्थान है। यहाँ पर आसक्ति से उत्पन्न हुआ दुःख और लोगों के द्वारा किया हुआ अपमान तथा खोटी गति में गमन दिखाई नहीं देता है । इस प्रकार वनवासी सर्वथा धन्य हैं। समराइच्चकहा में स्वयंवर विवाह, प्रेमविवाह और परिवारविवाह-इस प्रकार तीन प्रकार के विवाहों का उल्लेख है। पुत्री जब विवाह योग्य हो जाती थी तो पिता दूर-दूर तक के प्रतिष्ठित व्यक्तियों को आमन्त्रित करता था और किसी निश्चित तिथि पर स्वयंवर का आयोजन किया जाता था। इस प्रकार की विधि को स्वयंवर विधि कहते थे । यह विधि प्रायः राजघरानों में प्रचलित रही होगी। प्रेमविवाह तथा परिवार विवाह सभी वर्गों में प्रचलित थे। समराइच्चकहा में ८६ कलाओं एवं विधाओं का उल्लेख हुआ है। ये निम्नलिखित थीं-१. लेख २. गणित ३. आलेख ४. नाट्य ५. गीत ६. वाद्य ७ स्वरगत ८. पुष्करगत (बाँसुरी आदि बजाना), ६. समताल १०. द्यूत ११. जनवाद १२. होरा १३. काव्य १४. दकमार्तिकम् (कृषि विज्ञान) १५. अष्ठावय (अर्थशास्त्र) १६. अन्नविधि १७. पानविधि १८. शयनविधि १९. आर्या २० प्रहेलिका २१. मागधिका (मागधी आदि भाषाओं का ज्ञान) २२. गाथा २३. गीति २४. श्लोक २५. महुसित्थ (मधु तथा मोर आदि बनाने की कला), २६. गन्धजुक्ति (सुगन्धित पदार्थों की पहचान) २७. आभरण विधि २८. तरुणप्रीति कर्म २६: स्त्री लक्षण ३० पुरुष लक्षण ३१. हय लक्षण ३२. गजलक्षण ३३. गो लक्षण ३४. कुक्कुट लक्षण ३५. मेष लक्षण ३६. चक्र लक्षण ३७. छत्र लक्षण ३८. दण्ड लक्षण ३६. असि लक्षण ४०. मणि लक्षण ४१. काकिनी (रत्न विशेष की जानकारी) ४२. चर्म लक्षण ४३. चन्द्रचरित ४४. सूर्य चरित ४५ राहु चरित ४६. ग्रह चरित ४७. सूत्रक्रीडा ४६. सूयाकार (आकार मात्र से रहस्य का ज्ञान) ४६. दूताकार ५०. विद्यागत ५१. मन्त्रगत ५२. रहस्यगत ५३. संभव ५४. चार (तेज गमन करने की कला) ५५. प्रतिचार ५६. व्यूह ५७. स्कन्धावारमान ५८. नगरमान ५६. वास्तुमान ६०. स्कन्धावारनिवेश ६१. प्रतिव्यूह ६२. नगरनिवेश १. ता नरिन्दावमाणपीडियाणं दारिद्ददुक्खपरिभूयाणं दोहरगकलंक दूमियाणं इटुजणविनोगदहणतत्ताणं य एवं परं इह परलोय सुहावह परमनि व्युइठ्ठाणं ति । एत्थ पेच्छन्ति न संगकयं दुक्खं अवमाणणं च लोगाओ। दोग्गइणपडणं च तहा वणवासी सत्वहा धन्ना ॥१/४५ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001881
Book TitleSamraicch Kaha Part 1
Original Sutra AuthorHaribhadrasuri
AuthorRameshchandra Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1993
Total Pages516
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Story, & literature
File Size13 MB
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