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[ समराइचकहा ६३. वास्तुनिवेश ६४. इष्वस्त्र (बाण का प्रयोग करने की कला) ६५. तत्त्वप्रवाद ६६. अश्वशिक्षा ६७. हस्तिशिक्षा ६८. मणिशिक्षा ६६. धनुर्वेद ७०. हिरण्यवाद ७१. सुवर्णवाद ७२. मणिवाद ७३. धातुवाद ७४. बाहुयुद्ध ७५. दण्डयुद्ध ७६. मुष्टियुद्ध ७७, अस्थियुद्ध ७८. युद्ध ७६. नियुद्ध ८०. युद्ध नियुद्ध ८१. सूत्र क्रीडा ८२. वत्थखेड्ड (सूत की जानकारी), ८३. बाह्यक्रीडा (घुड़सवारी की कला), ८४. नालिक क्रीडा (एक प्रकार की द्यूतक्रीडा), ८५. पत्रच्छेद ८६. कटकछेद (सेना को बेधने की कला) ८७. प्रतरछेद (वृत्ताकार वस्तु को भेदने की कला), ८८ सजीव (मृततुल्य व्यक्ति को जीवित करने की कला), ८६. निर्जीव (मन्त्र इत्यादि के द्वारा मारने की कला), ६०. शकुनरुत-पक्षियों की आवाज द्वारा शुभाशुभ का ज्ञान ।
__ अर्थ की महत्ता से सभी सुपरिचित हैं। समराइच्च कहा में कहा है कि अर्थरहित पुरुष पुरुष नहीं कहा जा सकता; क्योंकि दरिद्र व्यक्ति न यज्ञ प्राप्त कर सकता है, न सज्जनों की संगति; और न परोपकार ही सम्पादन कर सकता है। अर्थ ही देव है। अर्थ ही व्यक्ति का सम्मान बढ़ाता है, गौरव जताता है, मनुष्य का मूल्य बढ़ाता है, सौभाग्यशाली बनाता है तथा यही कुल, रूप और बुद्धि को प्रकाशित करता है।
प्राचीनकाल में अनेक प्रकार के शिल्प प्रचलित थे। इन्हीं के आधार पर जीविका-निर्वाह करने वालों की भारत में अनेक जातियाँ बन गयीं । जैसे - चित्रकार, लोहार, कुम्भकार, रजक, कार्पटिक । आचार्य हरिभद्र ने धर्माचरण करने वाले व्यक्ति के लिए निम्नलिखित कार्य करने का निषेध किया है-- इंगालकम्म (कोयला बनाने, बेचने वगैरह का कार्य), वनकर्म, दन्तवाणिज्य (हाथी दांत का व्यवसाय), लक्खवाणिज्य (लाख का व्यापार), केशवाणिज्य, रसवाणिज्य, निल्लञ्छण कर्म (शरीर के अंगछेद कर आजीविका करने वालों का कर्म), यन्त्रपीडन कर्म (कोल्हू वगैरह से आजीविका करना), असइपोषण (कुत्ता बिल्ली आदि पालकर या बेचकर आजीविका कमाना), शाक टिक कर्म, सर-दह-तलाय-शोषण (तालाब वगैरह सखाकर जीविका करना), गारुड़ियकर्म (मन्त्रौषधि से जीविका करना)। इन कर्मों के निषेध का मुख्य कारण इन कार्यों में होने वाली हिंसा है।
मानव प्राचीनकाल से ही वस्त्र और आभूषण-प्रेमी रहा है। समराइच्चकहा में दुकूल, अंशुक चीनांशक, अर्धचीनांशुक, देवदूष्य, क्षौमवस्त्र, पटवास, वल्कल, उत्तरीय. कम्बल, चेलवस्त्र, स्तनाच्छादन, गण्डोपधान तथा अलंगणिका रूप वस्त्रों का तथा कुण्डल, कटक, केयूर, मुद्रिका, कंकण, रत्नावली, हार, एकावली, मणिमेखला, कटिसूत्र, कंठक, मुकुट, चूडामणि नाम वाले आभूषणों का उल्लेख मिलता है। नाटक, छन्द, नृत्य, गीत, वाद्यकला, चित्रकला, कन्दुकक्रीड़ा, जलक्रीड़ा, बाह्याली क्रीड़ा तथा द्यूतक्रीड़ा के प्रसंग समराइच्चकहा में अनेक स्थानों पर आये हैं ! कथा में कार्तिक पूर्णिमा महोत्सव, कौमुदी महोत्सव, भष्टमीचन्द्र महोत्सव मदनोत्सव, तथा गूढचतुर्थक गोष्ठी, मित्रगोष्ठी आदि विभिन्न प्रकार की गोष्ठियों के भी वर्णन तत्कालीन समाज की मनोरंजनप्रियता को दर्शाते हैं।
धर्मकथा होने के कारण सरस्वती, लक्ष्मी, चण्डिका, नगरदेवी, ब्रह्मा, सूर्य, चन्द्रमा, इन्द्र, यम, दिकपाल, किन्नर, यक्ष, वानमन्तर, क्षेत्रदेवता तथा कुलदेवता इत्यादि के प्रसंग आये हैं। जैन तत्त्वज्ञान तथा उससे ओत-प्रोत श्रमण-श्रमणी और उपासक-उपासिकाओं के आचार-विचार को जानने का समराइच्चकहा एक अच्छा समाधान है। आभार
मैं आरणीय साहू अशोक कुमार जी (अध्यक्ष भारतीय ज्ञानपीठ) एवं साहू रमेश चन्द जी का बहुत आभारी हूँ जिन्होंने प्रस्तुत ग्रन्थ के प्रकाशन में अपनी विशेष रुचि दिखायी। डॉ० र० श० केलकर, डॉ. गोकुल प्रसाद जैन, श्री गोपीलाल अमर तथा डॉ० गुलाब चन्द्र जैन के प्रति भी मैं अपनी कृतज्ञता व्यक्त करता हूँ:जिन्होंने इसके सम्पादन-प्रकाशन में अपना पूरा सहयोग प्रदान किया।
-रमेश चन्द्र जैन
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