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________________ पढमो भवो] कयं, ताव कहमुवेओ अवेइ ? कुलवइणा भणियं-वच्छ ! इयाणिं से अविग्घेण जं पारणगं भविस्सइ, तहि ते गेहे आहारगहणं करिस्सइ त्ति । तओ कुलवइणा सद्दाविओ अग्गिसम्मतावसो। सबहुमाणं हत्थे गिहिऊण भणिओ य जेणवच्छ ! जं तुमं अकयपारणगो निग्गओ नरिंदगेहाओ, एएणं दढं संतप्पइ राया। कल्लं च एयस्स अई। सीसवेयणा आसि, अओ वेयणापरवेसेण न तुमं पडियग्घिओं' त्ति ; न एस अवरज्झइ । भणियं च ण 'जाव मम गेहे अग्गिसम्मतावसेण आहारगहणं न कयं, न ताव मे उन्वेओ अवेई' अओ इण्हि संपत्तपारणगकालेण भवया अविग्घेण मम क्यणाओ नरिंदबहुमाणओ य एयस्स गेहे पारणगं करियव्वं ति। अग्गिसम्मतावसेण भणियं-भयवं ! जंतुन्भे आणवेह । अकारणे संतप्पइ राया, जओ न किंचि मे परलोयविरुद्धमणुचिट्टियमणेणं । तो राया 'अहो ! से महाणुभावय' त्ति कलिऊण पण मिऊण तवस्सिजणं च कंचि वेलं पज्जुवासिय पविट्ठो नयरं। पुणो य कालक्कमेण राइणो विसयसुहमणुहवंतस्स अग्गिसम्मस्स य दुक्करं तवचरणविहिं करेन्तस्स समइक्कतो मासो त्ति। एत्थन्तरम्मि य संपत्ते पारणगदिवसे निवेइयं से रन्नो विक्खेवाआहारग्रहणं न कृतम् तावत् कथमुद्वेगोऽपैति ? कुलपतिना भणितम् -वत्स ! इदनीं तस्य अविघ्नेन यत् पारणकं भविष्यति, तदा तव गहे आहारग्रहणं करिष्यतीति। ततः कुलपतिना शब्दायित: अग्निशर्मतापसः । सबहुमानं हस्ते गृहीत्वा भणितश्चानेनवत्स ! यत् त्वं अकृतपारणको निर्गतो राजगेहात्, एतेन दृढं संतप्यते राजा । कल्यं चैतस्य अतीव शोषवेदना आसीत् अतो वेदनापरवशेन न त्वं प्रत्यर्षित इति नैषोपराध्यति । भणितं चानेन यावद मम गेहे अग्निशर्मतापसेन आहारग्रहणं न कृतं, न तावद् मम उद्वेगोऽपैति' । अत इदानीं सम्प्राप्तपारणककालेन भवताऽविघ्नेन मम वचनाद् नरेन्द्र बहुमानतश्च एतस्य गेहे पारणकं कर्तव्यमिति । अग्निशर्मतापसेन भणितम्-भगवन् ! यत् यूयम् आज्ञापयत । अकारणे सन्तप्यते राजा; यतो न किंचिद् मम परलोकविरुद्धमनुष्ठितमनेन । ततो राजा 'अहो ! तस्य महानुभावता' इति कलयित्वा प्रणम्य तपस्विजनं न कांचिद् वेलां पर्युपास्य प्रविष्टो नगरम् । पुनश्च कालक्रमेण राज्ञो विषयसुखमनुभवतः अग्निशर्मणश्च दुष्करं तपश्चरणविधि कर्वतः समतिक्रान्तो मास इति । अत्रान्तरे च सम्प्राप्ते पारणकदिवसे निवेदितं तस्य राज्ञो विक्षेपागनिजकदूर हो सकता है ?" कुलपति ने कहा, "वत्स ! अब उनका जो निर्विघ्न आहार करने का समय आयेगा उसमें वह आपके घर आहार ग्रहण करेंगे।" तब कुलपति ने अग्निशर्मा तापस को बुलाया । सम्मान सहित हाथ पकड़कर उनसे कहा, "वत्स ! जो. कि तुम बिना आहार लिये ही राजगृह से निकल आये, इससे राजा बहुत दु:खी हैं। कल इनके सिर में भयंकर पीड़ा थी, अतः वेदना के वशीभूत होने के कारण तुम्हें अर्घ्य नहीं दे सके, इसमें इनका अपराध नहीं है । इन्होंने कहा है कि जब तक अग्निशर्मा तापस मेरे घर आहार ग्रहण नहीं करते हैं तब तक मेरा उद्वेग नहीं मिटेगा। अत: आगामी आहार के दिन आप मेरे कथनानुसार विविघ्न रूप से राजा के द्वारा सम्मानित होकर इन्हीं के घर आहार करें ?" अग्निशर्मा तापस ने कहा, "भगवन् ! जैसी आपकी आज्ञा । राजा अकारण दुःखी हो रहे हैं । मेरे रोक के वित इन्होंने कल भी आचरण नहीं किया।" तब राजा. 'अग्निशर्मा की महानता आश्चर्यकारक है, ऐसा मानकर प्रणाम कर कुछ समय तक तपस्विजनों की उपासना कर नगर में प्रविष्ट हआ। पुनः कालक्रम से विषय-सुख अनुभव करते हुए राजा का तथा दुष्कर तपस्याविधि करते हुए अग्निशर्मा तापस का एक मास व्यतीत हो गया। इसी बीच आहार का दिन आने पर, उस राजा के पास घबड़ाये हुए कुछ १. पडियग्गिओ, २. निवेदियं । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001881
Book TitleSamraicch Kaha Part 1
Original Sutra AuthorHaribhadrasuri
AuthorRameshchandra Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1993
Total Pages516
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Story, & literature
File Size13 MB
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