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________________ पसत्यो भवो] हियकिलिस्समाणाविणीएसु भावणा । पडिवन्नचरणभावणा य पाणिणो तप्पभिइमेव' अप्पमायाइसएण पवढमाणसंवेगा निरइयारसीलयाए खर्वेति पुव्वदुक्कडाइं पावकम्माइं, अभावओ निमित्तस्स न बंधेति नवाइं । तओ ते, देवाणुप्पिया, परमसुहसमेया सुहपरंपराए चेव खविऊण कम्मजालं पाति जाइजरामरणरोयसोयरहियं परमपयं ति । राणा भणियं-भयवं, जइ ताव तायअज्जियाणं एहमेत्तस्स वि दुक्कडस्स ईइसो विवाओ ता कहमहं महापावकम्मयारी विवागओ निरवाइएसु अ जिऊण तं कम्मविवागं सोग्गई लहामि त्ति ? भयवया भणियं - महाराय, सुण । नत्थि असझं नाम चरणपरिणामस्स। एसो खलु परमामयं पावविसपरिणईए, वज्ज कम्मपव्वयस्स, चितामणी समोहियाणं, कप्पपायवो सिद्धिसुहफलस्स। जहेव महाराय, विसलेसभोइणोति एत्थ पाणिणो अकयपडियारा पावेंति आवई, मुज्झंति हियाहिएस, न सेवंति माणुस्सयसुहाइं, परिच्चयंति जीवियं; तहेव एए पमाइगो जीवा काऊण पावकम्माई अकाऊण पडियारं पावंति तप्फलं जाइजरामरणरोयसोयं ति । कयडियारा उण परमामयसामक्लिश्य मान-विनोतेषु भावना । प्रतिपन्नच रणभावनाश्च प्राणिनः तत्प्रभत्येव अप्रमादातिशयेन प्रवर्धमानसंवेगा निरतिचारशीलतया क्षपयन्ति पूर्वदुष्कृतानि पापकर्माणि, अभावतो निमित्तस्य न वनन्ति नवानि । ततस्ते देवानुप्रिय ! परमसुखसमेता सुखपरम्परयैव क्षपयित्वा कर्मजालं प्राप्नुवन्ति जातिजरामरणरोगशोकरहितं परमपदमिति । राज्ञा भणितम्-भगवन्! यदि तावत् तातायिकानामेतावन्मात्रस्यापि दुष्कृतस्य ईदशो विपाकस्ततः कथमहं महापापकर्मकारी विपाकतो निरयादिकेष्वभुक्त्वा तं कर्मविपाकं सुगति लभे इति ? भगवता वता भणितम-महाराज ! शृण । नास्ति असाध्यं नाम चरणपरिणामस्य । एष खल परमामतं पापविषपरिणत्याः वज्रं कर्मपर्वतस्य, चिन्तामणि: समीहितानाम्, कल्पपादपः सिद्धिसुखफलस्य । यथैव महाराज ! विषलेशभोजिनोऽपि अत्र प्राणिनोऽकृतप्रतीकारा: प्राप्नुवन्त्यापदम, मुह्यन्ति हिताहितेषु, न सेवन्ते मानुष्य कसुखानि, परित्यजन्ति जीवितम्, तथैव एते प्रमादिनो जीवा कृत्वा पापकर्माणि अकृत्वा प्रतीकारं, प्राप्नुवन्ति तत्फलं जातिजरामरण रोगशोकमिति । कृतका भाव रखना, चारित्र और भावनाओं से युक्त प्राणियों के पहले किये हुए दुष्कर्म अथवा पापकर्म, उसी समय से प्रमाद की अधिकता न रखना, संसार से भयभीत होना और अतिचार रहित शील का पालन कर हो जाते हैं और कारण के अभाव में नवीन कर्मों का बन्ध नहीं होता है । अत: हे देवानुप्रिय ! वे लोग परमसुख से युक्त होकर सुख की परम्परा से ही कर्मसमूह का नाशकर जन्म, जरा, मरण, रोग और शोक से रहित परमपद को पाते हैं।" राजा ने कहा--"भगवन् ! यदि पिता जी और माता जी के इतने ही दुष्कर्म का ऐसा परिणाम हुआ तो कैसे महान पापकर्म के फल से नरकादि में उस कर्म के फल को न भोगकर मैं सद्गति प्राप्त करूँगा ?" भगवान् ने कहा -"महाराज ! सुनो-चारित्र रूप परिणामों को धारण करने वाले जीव के लिए कुछ भी असाध्य नहीं है। यह चारित्ररूप भाव पापरूप विष की परिणति के लिए परम अमत है. कर्मरूपी पर्वतों के लिए वज्र है. इष्टकार्य की इच्छा करने वालों के लिए चिन्तामणि है और सिद्धि रूपी सुखफल के लिए कल्पवृक्ष है । जैसेमहाराज ! विष का लेश मात्र भी सेवन करने वाले प्राणी यहाँ पर प्रतीकार न कर आपत्ति को प्राप्त करते हैं, हिताहितों में मोहित होते हैं, मनुष्य जन्म के सुख का सेवन करते हैं, प्राणों को त्याग देते हैं, उसी प्रकार ये प्रमादी १. तयप्पभिइ"-क, २. पवट्ठमाण -ख, ग। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001881
Book TitleSamraicch Kaha Part 1
Original Sutra AuthorHaribhadrasuri
AuthorRameshchandra Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1993
Total Pages516
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Story, & literature
File Size13 MB
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