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३१६ तायस्स अज्जियाए य गइविसेसं ति । पुच्छिओ भयवं, साहिओ य भयवया पिट्ठकुक्कुडवहनिमित्तो मऊराइलक्खणो जयावलीगब्भसमप्पत्तिपज्जावसाणो त्ति। राइणा चितियं-अहो जगुच्छणीयया संसारस्स, अहो अणवत्थियसिणेहया' इत्थियाणं, अहो गरुयया' मोहस्स, अहो दारुणविवागया अकज्जायरणाणं, जमिह देवयानिमित्तं पिट्ठमयकुक्कुडवहो वि एवं परिणओ त्ति ।
हा अहयं किं काहं निरत्ययं जेण जियसया बहुया। वावाइया फुरंता अन्नाणमलावलित्तेण ॥४२०॥ ता नणं गंतव्वं निरयं कंडुज्जुएण' पंथेण ।।
नत्थि हु एत्थ उवाओ अहवा पुच्छामि भयवंतं ॥४२१॥ एत्थंतरम्मि मुणियरिंदाहिप्पाएणं भणियं सुदत्तमुणिवरेण-महाराय, अत्थि उवाओ। सो उण तिगरगविसुद्धा जिणधम्मपडिवत्ती। सापुण पुव्वदुक्कडेसु अच्चतमणुयावो, जिणवयणजलेण चित्तरयगसोहणं, समारंभचाएण चारित्तपडिवत्तो, मेत्तीपमोयकारुण्णमझत्थयाणं च जीवगुणाअतो पच्छामि भगवन्तं तातस्यायिकायांश्च गतिविशेषमिति । पृष्टो भगवान् । कथितश्च भगवता पिष्ट कुर्कुटवघनिमित्तो मयूरादिलक्षणो जयावलीगर्भसमुत्पत्तिपर्यवसान इति । राज्ञा चिन्तितमअहो जुगुप्सनोयता संसारस्य, अहो अनवस्थितस्नेहता स्त्रीणाम्, अहो गुरुकता मोहस्य, अहो दारुण विपाकताऽकार्याचरणानाम्, यदिह देवतानिमित्तं पिष्टमयकुकुंटवधोऽपि एवं परिणत इति ।
हा अहं किं करिष्यामि निरर्थकं येन जीवशतानि बहुकानि । व्यापादितानि स्फुरन्ति अज्ञानमलावलिप्तेन ॥४२०।। ततो नूनं गन्तव्यं निरयं काण्डर्जु केन पथा।
नास्ति खल्वत्रोपायोऽथवा पृच्छामि भगवन्तम् ।।४२१॥ अत्रान्तरे ज्ञातनरेन्द्राभिप्रायेण भणितं सुदत्तमुनिवरेण---महाराज ! अस्त्युपायः । स पुनस्त्रिकरणविशुद्धा, जिनधर्मप्रतिपत्तिः। सा पुनः पूर्वदुष्कृतेषु अत्यन्तमनुतापः, जिनवचनजलेन चित्तरत्नशोधनम्, सर्वारम्मत्यागेन चारित्रप्रतिपत्तिः, मैत्रीप्रमोदकारुण्यमाध्यस्थानां च जीव-गणाधिककी गतिविशेष को पूछता हूँ। भगवान् से पूछा । भगवान् ने आटे के मुर्गे का वध करने के कारण मोर से लेकर जयावली के गर्भ से उत्पत्तिपर्यन्त कथा कही। राजा ने सोचा-'ओह ! संसार घृणित है, स्त्रियों का स्नेन्द्र चंचल है, मोह अत्यधिक बलवान् है, अकार्य के आचरण का फल भयंकर होता है जो कि देवर मर्गे का वध करने पर भी ऐसा फल प्राप्त हुआ!
हाय ! मैं क्या करूँ, जिसने कि व्यर्थ ही अज्ञानरूपी मल से लिप्त होकर बहुत से सैकड़ों जीवों को मारा । इसके कारण मैं निश्चित रूप में काण्डणुक नामक पथ से नरक में जाऊँगा । अब कोई उपाय नहीं है, अथवा भगवान् से पूछता हूँ' ॥४२०-४२१॥
इसी बीच राजा के अभिप्राय को जानकर सुदत्त मुनिवर ने कहा-"महाराज ! उपाय है । वह उपाय मन, वचन, काय से शुद्ध होकर जैनधर्म को प्राप्त करना है और वह जैनधर्म की प्रतिपत्ति पहले किये हुए पापों का अत्यधिक पश्चात्ताप, जिनवचन रूपी जल से चित्त रूपी रत्न का शोधन, समस्त आरम्भ का त्यागकर चारित्र की प्राप्ति, गुणों में अधिक जीवों के प्रति मैत्री, दीन-दुःखियों के प्रति करुणा तथा अविनीत लोगों के प्रति माध्यस्थ १. अणवट्ठिय - ख, २. गुरुयया-ख, ३, कंदुज्जएण-ग, ४. " कारुण " -क ।
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