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________________ परत्वो भवो एवं च, महाराय, परमगुणजुत्तत्तणेण तियसाण वि महामंगलं समणरूवं कहं ते अवसउणो त्ति ? एयमायण्णिऊण पणट्टराइणो मिच्छत्तं। अहो 'नाणाइसओ' त्ति जंपमाणो निवडिओ चलणेस। भणियं च णेण-भयवं, एवमेयं, जमाइट्ट भयवया । वज्जियं मए नियाणं । ता खमसु' मे एयमवराह ति । भयवया भणियं--- उ8 हि देवाणुप्पिया उट्ठ हि, अलं ते संभमेणं । खमापहाणा चेव मणिणो हति । खमियं मए सव्वसत्ताणं । निसामेहि तित्थयरभासियं खमाए परंपराभावणं । विणा वि वइयरं वालेणऽक्कोसिएणावि साहुणा खमा भावियवा सुंदरो खु एसो जमेवमवि अहिणिविट्रो न मं तालेइ' । तालिएणावि साहुणा खमा भावेयव्वा 'सुंदरो खु एसो, जमेवमवि अहिणिविट्ठो न मं जीवियाओ ववरोवेइ' ति । ववरोइज्जमाणे गावि साहुणा खभा भावेयव्वा सुंदरा खु एसो, जमेवमवि अहिणिविट्ठो न मं संजमाओ भंसेइ; कि तु ममं चेव पुन्य कम्मपरिणइ एस' त्ति। एवं च सोऊण परितट्रो राया। चितियमणेणं-नत्थि अविसओ नाम भयवओ नाणस्स। अओ पुच्छामि भयवंतं एवं च महाराज! परमगुणयुक्तत्वेन त्रिदशानामपि महामङ्गलं श्रमणरूपं कथं तेऽपशकुन इति ? एतदाकर्ण्य प्रनष्टं राज्ञो मिथ्यात्वम् । अहो 'ज्ञानातिशयः' इति जल्पन् निपतितश्चरणयोः। भणितं च तेन-भगवन् ! एवमेतद् यदादिष्टं भगवता। वजितं मया निदानम् ; ततः क्षमस्व मे एतमपराधमिति । भगवता भणितम् -- उत्तिष्ठ दवानुप्रिय ! उत्तिष्ठ, अलं ते सम्भ्रमण । क्षमाप्रधाना एव मनयो भवन्ति । क्षामितं मया सर्वसत्त्वानाम् । निशामय तीर्थंकरभाषितं क्षमायाः परम्पराभावनाम । विनाऽपि वैरं वालेनाक्रुष्टेनापि साधुना क्षमा भावयितव्या 'सुन्दरः खल्वेषः, यदेवमपि अभिनिविष्टो न मां ताडयति ।' ताडितेनापि साधुना क्षमा भावयितव्या 'सुन्दरः खल्वेषः, यदेवमपि अभिनिविष्टो न मां जीविताद् व्यपरोपयति' इति । व्यपरोप्यमाणेनापि साधुना क्षमा भावयितव्या 'सुन्दरः खल्वेषः, यदेवमपि अभिनिविष्टो न मां संयमाद् भ्रंशयति, किन्तु ममैव पूर्वकर्मपरिणतिरेषेति'। एतच्च श्रुत्वा परितुष्टो राजा। चिन्तितमनेन-नास्ति अविषयो नाम भगवतो ज्ञानस्य। इस प्रकार हे महाराज ! परमगुणों से युक्त होने के कारण जो देवों के लिए भी महामंगल रूप है--ऐसा श्रमण का रूप तुम्हारे लिए अपशकुन कैसे है ? ह सुनकर राजा का मिथ्यात्व नष्ट हो गया । ओह ! इनके ज्ञान का अतिशय आश्चर्यकारी है. ऐसा कहते हए चरणों में गिर पड़ा। उसने कहा --- "भगवन् ! जो आपने आदेश दिया, वह ठीक है। मैंने निदान मोड दिया । अतः मेरा अपराध क्षमा कीजिए।" भगवान् ने कहा-“हे देवानुप्रिय ! उठो, डरो मत । मुनिगण क्षमाप्रधान होते हैं । मैंने सभी प्राणियों को क्षमा कर दिया है । परम्परा से तीर्थंकर के द्वारा कही हुई क्षमा की क्रमिक भावना को सुनो । बिना किसी वैर के मूर्ख अथवा गाली गलौज करने वाले पर भी साधु क्षमा भाव रखे। कि 'यह सुन्दर है' इस प्रकार का संकल्प वाला होते हुए भी यह मुझे नहीं मारता है । यदि वह मारे भी तो साध को क्षमाभाव रखना चाहिए कि 'यह सुन्दर है' जो कि ऐसा संकल्प रखते हुए भी प्राणों से अलग नहीं करता है। यदि वह जान से मारे तो भी साधु को क्षमाभाव रखना चाहिए । 'यह सुन्दर है' जो कि इस प्रकार का संकल्प रखते हुए मुझे संयम से च्युत नहीं करता है, किन्तु यह तो मेरे ही पूर्वकर्मों का फल है।" यह सुनकर राजा सन्तुष्ट हुआ। उसने सोचा-भगवान् के ज्ञान का कोई विषय नहीं है, ऐसा नहीं है । अतः भगवान् से माता और पिता १. खमेसु-ख, २. धंसेइ-ख । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org |
SR No.001881
Book TitleSamraicch Kaha Part 1
Original Sutra AuthorHaribhadrasuri
AuthorRameshchandra Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1993
Total Pages516
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Story, & literature
File Size13 MB
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