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अन्नं च
अन्यच्च
दोसा उण विवहजणं पडुच्च न हु केइ एत्थ विज्जंति । जं सव्वसत्यसारो पाणिदया तिगरणविसुद्धा ॥ ४१४॥ एवं गणमाणेहिं चूलोवणयंम्मि जन्नदिक्खाए । सव्वायरेण गहियं अण्हाणवयं दिएहिं पि ॥ ४१५॥
satमा गुत्ता दंतिंदिया जियकसाया । सज्झायभाणनिरया निच्चसुई मुणिवरा होंति ॥४१६॥ सिरतुंडमुंडणं पि हु जइस्स सव्वासवा नियत्तस्स । पढमवयरक्खणट्ठा गुणावहं होइ नियमेणं ॥ ४१७॥ पासंडं पिय एवं सुमंगलं वीयरागदो सेहि । जम्हा जिणेहि भणियं अओ विरुद्धं ति वामोहो ॥४१८ ॥ सव्वारंभनियो अप्पडिबद्धो य उभयलोएसु । भिक्खोवजीवगो च्चिय पसंसिओ सव्वसत्थेसु ॥४१९ ॥ दोषाः पुनविबुधजनं प्रतीत्य न खलु केऽप्यत्र विद्यन्ते । यत्सर्वशास्त्रसारः प्राणिदया त्रिकरणविशुद्धा ॥ ४१४ ॥ एतांगणचूडोपनये यज्ञदीक्षायाम् । सर्वादरेण गृहीतमस्नानव्रतं द्विजैरपि ॥ ४१५ ॥
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Prasad नयमा गुप्ता दान्तेन्द्रिया जितकषायाः । स्वाध्यायध्याननिरता नित्यशुचयो मुनिवरा भवन्ति ॥ ४१६ ॥ शिरस्तुण्डमुण्डनमपि खलु यतेः सर्वास्रवाद् निवृत्तस्य । प्रथमव्रत रक्षणार्थं गुणावहं भवति नियमेन ॥ ४१७॥ पाखण्डमपि चैतत् सुमङ्गलं वीतरागद्वेषैः । यस्माज्जनैर्भणितमतो विरुद्धमिति व्यामोहः ॥४१८ ॥ सर्वारम्भनिवृत्तोऽप्रतिबद्धश्चोभयलोकेषु ।
भिक्षोपजीवक एव प्रशंसितः सर्वशास्त्रेषु ॥ ४१६ ॥
बुद्धिमानों को इसके अतिरिक्त, स्नान न करने में और कोई दोष नहीं दिखाई देते हैं कि मन, वचन तथा काय से समस्त शास्त्रों की सार प्राणिदया हो जाती है। इसी को मानकर चूडाकर्म और उपनयन संस्कार के समय यज्ञदीक्षा में ब्राह्मण भी बहुत आदर से स्नान न करने के व्रत को ग्रहण करते हैं ॥ ४१४-४१५।।
[समराइ चकहा
दूसरी बात भी है
अखण्डित व्रत और नियम वाले, मन-वचन-काय की प्रवृत्तियों को वश में रखने वाले, इन्द्रियों का दमन करने वाले, कषायों को जीतने वाले, स्वाध्याय तथा ध्यान में रत मुनिलोग नित्य पवित्र होते हैं। शिर और दाढ़ी का मुण्डन करना भी समस्त आस्रवों से निवृत्ति तथा प्रथम (अहिंसा) व्रत की रक्षा के लिए निश्चित रूप से मुनि को गुणकारी होता है । पाखण्ड भी यह धर्म मंगलमय है, क्योंकि राग-द्व ेषों से रहित जिनों ने इसका उपदेश दिया है, इसे विरुद्ध कहना व्यामोह है । इसमें समस्त आरम्भों की निवृत्ति होती है और यह इहलोक और परलोक दोनों से ही मुक्ति दिलाता है । भिक्षा से जीवनयापन की सभी शास्त्रों में प्रशंसा की गयी है ।। ४१६ ४१६ । १. दिएहि तिख ।
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