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चउत्पो भयो !
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'अवसउणो खु एसो, अओ कयत्थगाए माणेमि' त्ति । अवसउणते य इमं ते निमित्तं पडिहाइ, जहा किल एस अण्हाणसेवी कयसिरतुंडमुंडणो विरुद्धपासंडवेसधारी भिक्खोवजीवगो त्ति । ता एत्थ महाराय, मज्झत्थो भविऊण निसामेहि कारणं, के पहाणसेवणासेवणाए गुणदोस त्ति ? तत्थ हासेवणगुणा
इमे य दोसा ।
देहो खणमेत्तसुई तम्मिय राओ तहाहिमाणो य । विलयाणपत्थणिज्जो सुइ त्ति दप्पो य अक्खाणं ॥४१२॥
एए चैव विवज्जएणं अव्हाणगुणा ।
चिन्तितं च त्वया 'अपशकुनः खल्वेषः, अतः कदर्थनया मानयामीति । अपशकुनत्वे चेदं ते निमित्तं प्रतिभाति, यथा किल एषोऽस्नानसेवी कृतशिरस्तुण्डमुण्डनो विरुद्धपाखण्डवेषधारी भिक्षोप जीव क इति । ततोऽत्र महाराज ! मध्यस्थो भूत्वा निशामय कारणम्, के स्नान सेवनासेवनायां गुणदोषा इति । तत्र स्नानसेवनगुणाः
जलगयजीवविघाओ उप्पीलणओ य अन्नसत्ताणं । अंगरखीरधुवणे अन्नाणपयासणं चेव ॥ ४१३॥
देहः क्षणमात्रशुचिस्तस्मिंश्च रागस्तथाऽभिमानश्च । वनितानां प्रार्थनीयः शुचिरिति दर्पश्चाक्षाणाम् ॥४१२॥ इमे च दोषाः -
ते एव विपर्ययेणास्नानगुणाः ।
१. कि—क ।
जलगतजीवविघात उत्पीडनकश्चान्यसत्त्वानाम् । अङ्गारक्षीरधावने अज्ञानप्रकाशनमेव ॥ ४१३ ॥
की अन्यथा प्राप्ति है । आपने सोचा - 'यह अपशकुन है अतः इसका अपमान करके ही मानूंगा । अपशकुन होने का कारण यह मालूम पड़ता है कि यह स्नान नहीं करता है, शिर और दाढ़ी-मूंछ के बालों का मुण्डन करता है, विरुद्ध पाखण्ड का सेवन किये हुए है और भिक्षा मांगता है। तो महाराज ! इस विषय में मध्यस्थ होकर कारण
सुनो। स्नान करने और न करने के क्या गुण-दोष हैं
स्नान करने के ये गुण हैं
शरीर क्षणमात्र के लिए पवित्र हो जाने से उसके प्रति राग और अभिमान । 'पवित्र है' ऐसा मानकर स्त्रियों का प्रार्थनीय होना तथ इन्द्रियों का अभिमान -- ये गुण हैं ॥४१२॥
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और दोष ये हैं
जल में रहने वाले जीवों की हिंसा तथा दूसरे प्राणियों की पीड़ा- ये दोष हैं। कोयले को दूध से धोना अज्ञान को ही प्रकट करता है ।।४१३।।
ये ही विपरीत रूप से अस्नान ( स्नान न करने) के गुण हैं ।
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